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सन्धि-28
सीय स-लक्खणु दासरहि तरुवर-मूले परिट्ठिय जाहिं पसरइ
(सीया) 1/1
सीता (स-लक्ख ण) 1/1 वि
लक्ष्मण के साथ (दासरहि) 1/1
राम [(तरु)-(वर) वि-(मूल) 7/1]
श्रेष्ठ वृक्ष के नीचे के भाग में (परिट्ठिय) भूक 1/1 अनि
बैठे अव्यय
ज्योंही (पसर) व 3/1 अक
फैलता है (फैल गये) (सु-कइ) 6/1
सुकवि के (कव्व) 1/1
काव्य अव्यय
की भांति [(मेह)-(जाल) 111]
बादलों के सघन समूह [ (गयण)+ (अङ्गणे)][(गयण)-(अङ्गण)7/1] आकाश के आँगन में अव्यय
त्योंही
सुकइहे।
कन्यु
जिह मेह-जालु
गयणङ्गणे तावेहि =ताहिं
28.1
पसरइ मेह-विन्दु गयणङ्गणे पसर जेम सेण्णु समरङ्गणे
(पसर) व 3/1 अक
फैलता है [(मेह)-(विन्द) 1/1]
जलकणों का समूह [(गयण)+ (अङ्गणे)[(गयण)-(अङ्गण)7/1] अाकाश के क्षेत्र में (पसर) व 3/1 अक
फैलती है अव्यय
जिस प्रकार (सेण्ण) 1/1
सेना [(समर) + (अङ्गणे)][(समर)-(अङ्गण)7/1] युद्ध के क्षेत्र में
2.
पसर जम तिमिरु अण्णाणहो पसरह जेम
(पसर) व 3/1 अक अव्यय (तिमिर) 1/1 (अण्णाण) 6/1 (पसर) व 3/1 अक अव्यय (बुद्धि )1/1 (बहु-जाण) 6/1 वि
फैलता है जिस प्रकार अंधकार प्रज्ञान का फैलती है जिस प्रकार बुद्धि बहुत प्रकार का ज्ञान रखने वाले की
बुद्धि
बहु-जाणहो
3.
पसरइ
फैलता है
(पसर) व 3/1 अक अव्यय
जेम
जिस प्रकार
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन,पृष्ठ 156 । 2. इट्ठः-इष्ट (तुलनात्मक विशेषण के लिए लगाया जाता है) अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 261 ।
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[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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