________________
बाँटी हुई जमीन के भागवाला ( भाग में स्थित ) ( था)। [3] श्रेष्ठ स्वामी के पुत्रों को प्रणाम करके (और) (उनके प्रति ) विनय करके उनके द्वारा (दूत के द्वारा) वे कहे गये ।
[4] ( दूत ने कहा ) तुम (सब) नरनाथ ( राजा भरत) की ( ऐसी ) सेवा निश्चय ही करो (जो) देवताओं, मनुष्यों और धार्मिक ( - जन ) ( में) भय को उत्पन्न करनेवाली (हो), [5] (तुम) ( सब ) ( उनको ) प्रणाम करो। बहुत प्रलाप ( बकवास ) से क्या लाभ ( है ) ? मिथ्या गर्व से पृथ्वी प्राप्त नहीं की जाती है। [6] उसको सुनकर कुमारगण ने कहा - यदि ( किसी के) व्याधि नहीं देखी जाती है तो ( हम ) ( उसको ) प्रणाम करते हैं । [7] यदि ( किसी का) शरीर अत्यन्त पवित्र ( है ) तो ( हम ) ( उसको ) प्रणाम करते हैं । यदि (किसी का)
[9]
[8] जो न जीर्ण होता है (न) यदि (किसी का) बल कम नहीं (किसी की ) पवित्रता नष्ट नहीं यदि (किसी का) प्रेम खण्डित नहीं
यदि
[10]
जीवन सुन्दर ( है ) तो (हम) (उसको) प्रणाम करते हैं । क्षीण होता है तो (हम) (उसको ) प्रणाम करते हैं । होता है तो (हम) (उसको ) प्रणाम करते हैं । होती है तो ( हम ) ( उसको ) प्रणाम करते हैं। होता है तो (हम) ( उसको ) प्रणाम करते हैं । यदि ( किसी की ) उम्र क्षीण नहीं होती है तो ( हम ) ( उसको) प्रणाम करते हैं। [11] यदि (किसी के) गले में यम का फन्दा नहीं चिपका है तो ( हम ) ( उसको ) ( प्रणाम करते हैं), यदि किसी का वैभव नहीं घटता है तो (हम) (उसको ) प्रणाम करते हैं ।
घत्ता
-यदि (कोई) जन्म-जरा और मरण का हरण करता है, (यदि ) (कोई) चार गति के दुःख को दूर (नष्ट) करता है, यदि (कोई ) संसार से पार लगाता है, तो (हम) उस राजा को प्रणाम करते हैं ।
-
[12] फिर उनके द्वारा महत्वपूर्ण (गौर) सुनने में मधुर (शब्द) इस प्रकार कहे गये – प्रज्ञा-प्रसार (प्रसारित आज्ञा ) के पालन करने के प्रयोजन से (और) पृथ्वी के निमित्त से प्रणाम करना (करने के लिए) उपयुक्त नहीं है। [3] ( इस ) शरीर को (और) भू-खण्ड / पृथ्वी को मह व देकर (किन्तु ) आत्म-सम्मान को छोड़कर (किसी को) क्यों प्रणाम किया जाए ? [4] वृक्ष की छाल का वस्त्र, गुफा में घर, जंगल के फलों का भोजन श्रेष्ठ (तथा) अच्छा है । [5] निर्धनता (और) शरीर के लिए दंड देना श्रेष्ठ ( है ) ( किन्तु ) व्यक्ति के स्वाभिमान का खंडन (श्रेष्ठ) नहीं ( है ) । [6] सेवकरूपी नदी दूसरों के पैरों की धूल से पीले रंगवाली (हो जाती है) (इसलिए) असुन्दर (होती है) मानो ( श्रात्म-सम्मानरूपी) वर्षा [7] राजा के द्वारपालों के डंडों का संघर्षण (प्रोर) [8] ( उस ) ( मुख को) कौन देखे (जो ) बार-बार क्या ( वह ) प्रसन्न हुग्रा ( है ) या क्या क्रोध से काला
ऋतु की शोभा को हरनेवाली (हो) । हाथ से छाती पर प्रहार कौन सहेगा ? हों की सिकुड़न का स्थान ( है )
अपभ्रंश काव्य सौरभ |
16.8
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
1
37
www.jainelibrary.org