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[9] जिस (आत्मा) के न क्रोध (है), न मोह ( है ) (और) (न) मद ( है ), जिस (ग्रात्मा) के न माया ( है ) ( औौर) न मान ( है ), जिस (ग्रात्मा) के लिए ( अनुभूति का ) (कोई) (विशिष्ट) देश नहीं ( है ), ( जिस ) ( आत्मा ) ( के लिए ) ( प्रयत्नरूप ) ध्यान नहीं ( है ), वह ही आत्मा निष्कलंक ( होता है) । ( इस बात को ) (तुम) जानो ।
[10] जिस ( अवस्था ) में न पुण्य है (और) न पाप, जिस ( अवस्था ) में न हर्ष है. (और) (न) शोक, जिस ( अवस्था ) में एक भी दोष नहीं है वह ही अवस्था निष्कलंक ( होती
है) ।
[11] जिसके लिए ' ध्यान के योग्य ) ( कोई ) अवलम्बन नहीं है, ( प्राप्त करने योग्य ) ( कोई ) उद्देश्य भी नहीं ( है ), जिसके लिए न यन्त्र (और) न मन्त्र (उपयोगी ) ( है ), जिसके लिए न ही आसन, ( उपयोगी है ) न है वह अनन्त ( शक्तिवाला ) दिव्यात्मा ( है ) ( ऐसा ) (तुम) जानो ।
[12] जो (निष्कलंक ) चैतन्य ( है ), ( उसका ज्ञान ) आगमों द्वारा, ( आगमों पर प्राधारित) ग्रन्थों द्वारा (तथा) इन्द्रियों द्वारा नहीं होता है । (तुम) निश्चय ही जानो ( कि ) जो अनादि परमात्मा (निष्कलंक चैतन्य ) ( है ) वह निर्मल ध्यान का ( ही ) विषय ( होता है ) ।
[13] जिस तरह का निर्मल (और) ज्ञानमय दिव्यात्मा मोक्ष ( पूर्णता की अवस्था ) रहता है उस तरह का ( ही ) परमात्मा (दिव्यात्मा ) ( विभिन्न ) देहों में रहता है । (तू) भेद मत कर ।
में
[14] जिस (तत्व) के अनुभव किए गए होने के कारण पूर्व में किए गए कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, वह परम ( आत्मा ) ( है ) (तू) समझ | हे योगी ! ( इसके ) देह में बसते हुए ( भी ) ( तू ) ( इसको ) क्यों नहीं ( देखता है) ।
(जिसके लिए ) ( उपयोगी ) ( है ) ( विशिष्ट ) मुद्रा
[15] जहाँ इन्द्रिय सुख-दुख नहीं ( हैं ), जहाँ मन का व्यापार ( भी ) नहीं ( है ), वह (परम ) आत्मा (है) । हे जीव ! तू ( इस बात को समझ और दूसरी ( बात ) को पूरी तरह से छोड़ दे ।
[16] भेद और अभेद दृष्टि से जो ( क्रमशः) देह में रहता है वह (परम ) ग्रात्मा ( है ) । हे जीव ! ( इस बात ( बात ) से क्या ( लाभ है ) ?
लक्षण के भेद से (पूर्ण) भेद ( है ) | हे मनुष्य ! जान । जो ( इससे ) ग्रन्य है, वह अन्य (ही) (है),
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[17] (तू) जीव (ग्रात्मा) और प्रजीव (अनात्मा) को एक मत कर | ( इनमें ) (तू) अभेद रूप ( विकल्प - रहित ) आत्मा को (ऐसा ) मैं कहता हूँ ।
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और बिना देह के अपने में को ) तू समझ । दूसरी बहुत
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