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10.11
[1] जंबूस्वामी कथानक कहते हैं--कोई वणिक जहाज ले गया। [2] (वह) दूसरे किनारे पर गया। (उसके द्वारा) पृथ्वी के धन के तुल्य एक ही बहुमूल्य रत्न खरीदा गया। [3] (जब) (वह) जहाज पर चढ़ कर सागर के जल को पार करता है (तो) (किनारे पर) पहुँचते हुए मन में इष्ट (बातें) सोचने लगा। [4-5] जब (मैं) बन्दरगाह (समुद्र तट) को पहुँचूंगा फिर (मैं) वहाँ इस अत्यधिक कीमतवाले माणिकरत्न को बेचूंगा (और) (फिर) राजा की सम्पदा के समान नाना प्रकार के बर्तन (भांडे, सामान) घोड़े व हाथी खरीदकर (मैं) घर जाऊँगा। [6] तब अल्पनिद्रा में रत्न हाथ से निकल गया (और) वह समुद्र के भीतर जा पड़ा। [7] (तब) (उसने) हाहाकार मचाया। (पानी में) तेरे हुए (तैरते हुए) (लोगों) के लिए ऊँची आवाज (निकाली)-अरे-अरे ! जहाज स्थिर किया जाए। [8] हे उपस्थित (लोगों) ! यहाँ (पानी में) रत्न गिरा (है)। अवलोकन के लिए (ग्राप) (जहाज) (के) फिर उसको लाकर मेरे लिए (दो)। [9] हे देखनेवाले (मनुष्यो)! चलते हुए जहाज में सागर में लुप्त हुआ रत्न कहाँ प्राप्त किया जायेगा ?
घत्ता- यह मनुष्य-जन्म रत्न के समान है। (किन्तु) (मनुष्य) रति-सुखरूपी निद्रा के वश में हुआ भ्रमण (करता है) (इस तरह) (तुम्हारे द्वारा) हराया गया मैं संसार-समुद्र में किस प्रकार खोजता हुआ फिर (मनुष्य जन्म) पाऊँगा ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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