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अनकान्त 61-2
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के अशों की विद्यमानता के कारण अंतरंग भाव-सहित बाह्य नग्न भेष ही जिनवरों के मार्ग मे मान्य एवं पूज्य है। जिनमार्गी साधकों का वर्गीकरणजिनमार्गी वीतरागता के साधकों के मोटे तौर पर दो वर्ग हो सकते है-प्रथम गृहत्यागी साधु तथा दूसरा गृहस्थ (श्रावक)। प्रथम वर्ग में नग्न साधु, आर्यिका एव उत्कृष्ट श्रावक आते हैं और दूसरे वर्ग में व्रती-अव्रती सम्यग्दृष्टि श्रावक। इस वर्गीकरण का आधार अतरंग विशुद्ध परिणाम है। यदि बाह्य भेष के अनुसार साधु एव श्रावक में अंतरंग भाव, परिणाम नहीं है तो वह भेष जिनमार्ग में स्वाँग माना जाएगा। साधु का सामान्य स्वरूपजिनमार्गी साधु 28 मूलगुणयुक्त एवं अंतर्-बाह्य चौबीस परिग्रहो से रहित होता है। इनमे मिथ्यात्व, चार कषाय, नौ नोकषाय ये चौदह अंतरंग परिग्रह तथा क्षेत्र (भूमि), मकान, चाँदी, सोना, धन, धान्य (अनाज), दासी, दास, वस्त्र और बर्तन दस बाह्य परिग्रह होते है। इच्छा एवं मूर्छा परिग्रह होने से अंतरंग परिग्रह का त्याग एवं परिणामों की तदनुसारी निर्मलता ही महत्त्वपूर्ण है। साधु मन, वचन, काय एव कृत, कारित, अनुमोदना से उपरोक्त चौबीस परिग्रहों का त्यागी होता है। यदि साधु तिल-तुष मात्र भी परिग्रह युक्त हो तो उसका साधुत्व भग्न हो जाता है। ऐसे साधु का कथित जिनचिह्न कुचिह्न हो जाता है
और वह निगोद का पात्र हो पड़ता है (सूत्रपाहुड 18)। भाव एवं द्रव्यचिह्नी साधुबाह्य भेष के अनुसार साधुओ को भावचिह्नी, द्रव्यचिह्नी और जिनेतरचिह्नी (कुलिंग) इन तीन वर्गो में संयोजित किया जा सकता है। सर्वपरिग्रहरहित तथा अंतरंग में सम्यकदर्शन, ज्ञान एवं चारित्र-रूप आत्मलीनता से वीतरागता के अंशों को धारण करने वाले साधु भावचिह्नी कहलाते है। वे सुख-दुख कांच-कांचन, शत्रु-मित्र, हित-अहित सभी में समता-भाव धारण कर आत्माराधन करते है। आत्मज्ञान से शून्य और मंदकषाय-रूप शुभभावों को ही धर्म मानने वाले साधु द्रव्य-चिह्नी कहलाते हैं।