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हस्तिमाल के विक्रान्तकौरव में मादि तीथंकर ऋषभदेव
थी। दानादि के माहात्म्य से प्रनभिज्ञ मोर तपश्चर्या को अर्थात् जिन स्वयंभू ब्रह्मा की उत्पत्ति नाभि-नाभिगज प्रकट करने में पराधीनता से हतबुद्धि श्रेयान् ने घर पाए नामक कुलचर से हुई है तथा जो ममस्त पदार्थों से उत्पाद, हुए ऋषभदेव को दान दिया था।
व्यय और धोव्य का साक्षात् करने वाले है, वे भगवान महाकवि हस्तिमल्ल का यह विवेचन पौगणिक वर्णनो ऋषभदेव तुम्हारे कल्याण के लिए हों। से प्रत्याधिक मेल ग्यता है । हरिवश-पुराण में कहा गया (प्रतीहार)पाकाशं मर्त्य भावाधकुलवहनावग्निरो क्षमातो. है---"मनष्य भव मे पाते ही प्रादि तीर्थकर ऋषभदेव ने नस्सम्याटायरापः प्राणा समस्त प्राणियों को कृतार्थ किया। इस भव में ऋषभदेव सोमः सौम्यत्वयोगादविरिति च विदुस्तेजसा सन्निधानातीनो ज्ञान के धारक उत्पन्न हए है, प्रत उनको 'स्वयम' दिवामातीतविsa Har Haat भता
द्विश्वात्मातीतविश्व स भवतु भवतां भूतये भूतनायः ॥" कहा जाता है। भागवत में प्रादि तीर्थंकर के प्रगट होने
अर्थात् जो मति के प्रभाव मे आकाश है, पाप-समूहो को के दो प्रयोजन बताए गए है--मनियों के लिए धर्म प्रकट
जलाने से अग्नि है, क्षमा से पृथ्वी है, निष्परिग्रह होने से करना' और मोक्षमार्ग की शिक्षा देना।' तिलोयपण्ण त्ति
वाय है, प्रत्यधिक शाति से युक्त होने से जल है, स्वकीय मे सभी तीर्थकर मोक्षमार्ग के नेता कहे गए है। महापुराण
पात्मा में स्थिर होने से सुयज्वायाजक है, सौम्यता के के अनुमार, प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव नृत्य करती हुई एक
मयोग से चन्द्रमा है, तेज के सन्निधान से सूर्य है, विश्वअप्सरा की मृत्यु द्वारा इन्द्र को जीवन की क्षणिकता से
है तथा विश्व से परे है, वे भूतनाथ -प्राणि मात्र के परिचय करवाते है। तीर्थकरी के अवतार लेने के कई
स्वामी भगवान जितेन्द्र पाप सब को भति (ऐश्वर्य) के प्रयोजन पौराणिक ग्रथो मे वणित है । जैन मुनियो के
लिए हों।" यह वर्णन महाकवि कालिदास के द्वारा की हुई लिए प्राचार का प्रादर्श प्रस्तुत करना, प्राचार एव नियम
अष्टमूर्ति शिव की वन्दना से एकदम ममता रखता है। पालन की शिक्षा देना और जैनधर्म का प्रचार करना
उपनिषदो में भी ऋषियो ने परब्रह्म परमात्मा का ठीक प्रादि मुख्य प्रयोजन है । माथ ही तीर्थकरो में भव्य जीवो
ऐसा ही वर्णन किया है। परमात्मप्रकाश के अनुसार, जा को ससार-समुद्र से तारने की सामर्थ्य भी है ।' महाकवि
जिनेन्द्र देव है, वे परमात्मप्रकाश भी है।" केवल दर्शन, हस्तिमल्ल ने भी विक्रान्तकीरव में ये ही प्रयोजन प्रादि केवल ज्ञान, अनन्त सूख, प्रनन्न वीर्य प्रादि अनन्त चतुष्टय तीर्थकर ऋषभदेव के अवतरित होने के बताए है। से युक्त होने के कारण वही जिनदेव है । वही परम मुनि
नाटकान्त मे महाकवि ने ऋषभदेव को भूतनाथ (अर्थात प्रत्यक्ष ज्ञानी) है।" जिस परमात्मा को मुनि विरुद से अलंकृत करते हुए इस प्रकार बन्दना की है- परमपद हरि, महादेव, ब्रह्म तथा परमप्रकाश नाम से (महाराज प्रकम्पन ) यस्य स्वयभुवो नाभेब्रह्मणो विरुद्भवम्। कहते है, वह रागादि से रहित जिनदेव ही है। विश्वोत्पादलयध्रौव्यसाक्षी चास्तु शिवाय वः ॥'
(शेष पृ० १६ पर) १. वहीं, ३७२।
११. वही, ६.५२ । २. हरिवशपुगण, पृ १२३, ८, २०५-२०६ ।
१२. अभिज्ञानशाकुन्तल, १.१ । ३. वही, पृ. १२३, ८, २०७ ।
१३. परमात्मप्रकाश, पृ. ३३६, २, १९८ । ४. भागवत, ५-३-२० । ५. वही, ५-६-१२।
१४. वही, पृ. ३३७, २, १६६ । ६. तिलोयपण्णत्ति ४, ६२८ ।
१५. वही, ३३७-३८, २, २०० । ७. महापुराण ६, ४।
जो परमप्पउ परम पउ हरि हरू बभुवि बुद्ध परम ८. प्रवचनसार (८१ से १६५ ई० के बीच), पृ. ३, ४ । पयासु भणति मुणि सो जिण देउ विमुद्ध । द्र० डा० ह. विक्रान्तकौरव, ६.५१ ।
कपिलदेव पांडेय विरचित : मध्यकालीन माहित्य में १०. वही, ६.५२ ।
अवतारवाद; पृ. ८७ से ६३ ।