________________
उत्तरज्झयणााण
(२५)
भामका
गिद्धी
सुद्धी
असंयुक्त 'द' का प्रायः लुक नहीं होता और कहींकहीं उसको 'त' हो जाता है।
उदग (७१२३) असंयुक्त 'प' को प्रायः 'व' हो जाता हैमहादीवो (२३६६)
असंयुक्त 'य' का प्रायः लुक् नहीं होता और कहीं-कहीं उसको 'त' हो जाता है
उवाया (३२६)
असंयुक्त 'व' का प्रायः लुक् नहीं होता और कहीं-कहीं उसको 'त' हो जाता है
पवरे (११११६) दिवायरे (११।२४) प्रथमा के एकवचन में 'एकार' होता हैकयरे (१२।६)
धीरे (१५३) महाराष्ट्री
'क' का प्रायः लुक् होता हैअज्झावयणं (१२।१६) 'ग' का प्रायः लुक् होता हैभोए (१४।३७) 'च' और 'ज' का प्रायः लुक् होता हैसमुवाय (१४ ॥३७) बीयाइं (१२।१२) 'त' का प्रायः लुक् होता हैपुरोहियं (१४ ॥३७) 'द' का प्रायः लुक् होता है-- विइयाणि (१२।१३) 'प' का प्रायः लुक् होता हैतउय (३६ ७३) 'य' का प्रायः लुक् होता हैकाय (३६ १८२)
आउ (७।१०) 'व' का प्रायः लुक् होता हैचेय (२४।१६) प्रथम के एकवचन में 'ओकार' होता हैमणगुत्तो (१२॥३) शब्द भेदअर्द्धमागधी
महाराष्ट्री कम्मुणा (२५१३१)
कम्मेण
वेयसां (२५।१६)
वेयाणं विसालिसेहिं (३।१४) विसरिसेहि दुवालसंगं (२४१३) बारसंग (२३७) गेही (६४) सोही (३।१२) तेगिच्छं (२।३३)
चीइच्छं मिलेक्खुया (१०।१६) मिलिच्छा, मिच्छा माहणा (१२।१३)
बम्हणो (२५/१६) पडुप्पन्न (२६ सू. १३) पच्चुप्पन्न (७६)
उत्तराध्ययन में अर्द्धमागधी के साथ-साथ महाराष्ट्री-प्राकृत के प्रयोग भी मिलते हैं। इसलिए भाषा की दृष्टि से इसे भाषा-द्वय की मिश्रित कृति कहा जा सकता है। १७. उत्तराध्ययन के व्याख्या-ग्रंथ
जैन आगमों में उत्तराध्ययन सर्वाधिक प्रिय आगम है। उसकी प्रियता का कारण उसके सरल कथानक, सरस संवाद
और सरस रचना-शैली है। उसकी सर्वाधिक प्रियता के साक्ष्य व्यापक अध्ययन-अध्यापन और विशाल व्याख्या-ग्रन्थ हैं। जितने व्याख्या-ग्रंथ उत्तराध्ययन के हैं, उतने अन्य किसी आगम के नहीं हैं। १. नियुक्ति :
यह उत्तराध्ययन के प्राप्त व्याख्या-ग्रन्थों में सर्वाधिक प्राचीन है। इसमें ५५७ गाथाएं हैं। यह लघु कृति है, किन्तु इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह उत्तरवर्ती सभी व्याख्या-ग्रन्थों की आधार-भित्ति रही है। इसके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु (वि. छठी शताब्दी) हैं। २. चूर्णि :
यह प्राकृत-संस्कृत में लिखी गई उत्तराध्ययन की महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। इसमें अन्तिम अठारह अध्ययनों की व्याख्यान बहुत ही संक्षिप्त है। ग्रन्थ की प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपना परिचय 'गोपालिक महत्तर शिष्य' के रूप में दिया है।' इसका अस्तित्व-काल विक्रम की सातवीं शताब्दी है। ३. शिष्यहिता (बृहवृत्ति या पाइय-टीका) :
उत्तराध्ययन की संस्कृत-व्याख्याओं में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें अवतरणात्मक कथाएं प्राकृत में गृहीत हैं। बृहद्वृत्तिकार ने अनेक बार 'बृद्धसम्प्रदायादवसेयः'२ या सम्प्रदायाकवसेयः'३ लिख कर उनका अवतरण किया है।
बृहद्वृत्तिकार के सामने चूर्णि के अतिरिक्त और भी कोई व्याख्या रही है, ऐसा प्रतीत होता है। नौवें अध्ययन के अट्ठाईसवें श्लोक की व्याख्या में—'तथा च वृद्धाः
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २८३ : वाणिजकुलसंभूओ, कोडियगणिओ उ वयरसाहीतो। गोवालियमहत्तरओ, विक्खाओ आसि लोगमि ।।१।। ससमयपरसमयविऊ, ओयस्सी दित्तिमं सुगंभीरो। सीसगणसंपरिवुडो, वक्खाणरतिप्पिओ आसी ।।२।।
तेसिं सीसेण इम, उत्तरायणाण चुण्णिखंडं तु।
रइयं अणुग्गहत्थं, सीसाणं मंदुबुद्धीणं ।।३।। २. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र १४५। ३. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र १२५ ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org