________________
उत्तरज्झयणाण
तथा अ. २७६
जातक
१. मातंग (सं. ४६७)
२. चित्तसंभूत (सं. ४६८ )
३. हस्तिपाल (सं. ५०६ )
४. महाजन (सं. ५३६)
इनके सादृश्य का कारण पूर्वकालीन 'श्रमण-साहित्य' का स्वीकरण है। प्रत्येक-बुद्धों द्वारा रचित प्रकरण हजारों की संख्या में प्रचलित थे। उन्होंने भारतीय साहित्य की प्रत्येक धारा को प्रभावित किया था। मार्केण्डेय पुराण के पिता-पुत्र संवाद की तुलना उत्तराध्ययन के चौदहवें इषुकारीय अध्ययन गत पिता-पुत्र संवाद से करने पर दोनों का स्रोत एक ही परम्परा में प्राप्त होता है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने 'उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन' में की है। १५. उत्तराध्ययन : व्याकरण-विमर्श
वर्तमान प्राकृत व्याकरण की अपेक्षा प्राचीन आगमों में कुछ विशिष्ट प्रयोग उपलब्ध होते हैं। उत्तराध्ययन भी उसी कोटि का आगम है। इसके अनेक स्थलों में विभक्ति-विहीन शब्द का प्रयोग है। अनेक स्थलों में हस्व का दीर्घीकरण और दीर्घ का इस्वीकरण है। संस्कृत तुल्य तथा प्राकृत व्याकरण से असिद्ध संधि-प्रयोग प्राप्त होते हैं। विभक्ति, वचन आदि का व्यत्यय भी विपुल मात्रा में मिलता है। इसमें समालोच्य शब्द भी प्रयुक्त हैं।
विभक्ति - विहीन शब्द प्रयोग :
वृद्धपुत्त (१1७)
भाय (१९३६)
कल्लाण (१।२६) भिक्खु (१।२२) तेल्ल (१४।२८)
जीवि (३२।२० ) ह्रस्व का दीर्घीकरण :
समाययन्ती (४।२)
परत्था (४।५) दुक्खपउराए (19) जाईमय (१२५) अन्नमन्नमणूरता (१३1५)
अग्गमाहिसी (१६19)
दीर्घ का इस्वीकरण :
पण (१४/४१)
जिया ( २२।१६ )
पमाणि (७।२७)
संस्कृत तुल्य संधि-प्रयोग : सुइरादवि (७१८)
Jain Education International
(२३)
भामका
प्राकृत व्याकरण से असिद्ध संधि-प्रयोग : उवसग्गे+अभिधारए-उवसग्गाभिधारए (२:२१) बुद्धेहि आयरियं युद्धेहापरियं (११४२) विष्परियास उवे विप्यरियासुवेद (२०४६) विभक्ति - व्यत्यय
:
आणुपुविं (919) यहां तृतीया के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है।
अदीणमणसो ( २३ ) – यहां प्रथज्ञम के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है।
सदुक्खणां (८८) यहां तृतीया के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है।
चो सहि ठाणेहिं (११।६ ) – यहां सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है।
मुहाजीवी (२५।२७) यहां द्वितीया के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है।
चरमाण (३०/२० ) – यहां षष्ठी के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है।
वचन- व्यत्यय :
विहन्नइ ( २।६ ) यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन है।
आहु (१२।२५ ) - यहां एकवचन के स्थान पर बहुवचन है।
तं ( ३६ १४८ ) - यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन
है ।
परित्तसंसारी (३६ | २६० ) – यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन है। अलाक्षणिक
:
फरसु + आईहिं=फरसुमाईहिं ( १६ १६६ ) मुट्ठि+आईहिं=मुट्ठिमाईहिं ( १६ १६७) असजत्-संजए (२१/२० )
समालोच्य शब्द:
अप्पायंके (३1१८ ) यहां 'अप्प' का प्रचलित अर्थ 'अल्प' प्राप्त नहीं होता। यहां यह शब्द निषेधार्थ में प्रयुक्त है ।
सुदि (१२।२८) सुज ( १२१४० ) इन दोनों में समान प्रयोग चाहिए। संभव है 'सुंदिट्ठ' के स्थान में लिपि - दोष से 'सुजां' हो गया हो।
'उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन' में हमने व्याकरण विषयक ऊहापोह विस्तार से किया है। १६. उत्तराध्ययन: भाषा की दृष्टि से
उत्तराध्ययन की भाषा प्राकृत है। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में सात प्राकृतों का उल्लेख किया है— मागधी, आवन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, वाल्लीका और
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org