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उत्तरज्झयणाणि (२१)
मामका अध्ययन के अंतिम श्लोक को पढ़ते हैं, तब उससे यह फलित अंग है। जीव विषयक इतना व्यवस्थित और विस्तृत नहीं होता कि ज्ञातपुत्र महावीर छत्तीस अध्ययनों की प्रज्ञापना प्रतिपादन अन्य किसी धर्म-परम्परा में नहीं था। आचार्य कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।
सिद्धसेन ने इसे भगवान् महावीर की सर्वज्ञता की कसौटी के महावीर की परम्परा में जो अर्थ-प्रतिपादन होता है, रूप में प्रस्तुत किया है। वह उनकी धर्मदेशना के आधार पर होता है। इसी पारंपरिक
उत्तराध्ययन में जीव-विभक्ति का भी एक सुन्दर सत्य का उल्लेख उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता ने अन्तिम प्रकरण है। अजीव-विभक्ति, कर्मवाद, षड्द्रव्य, नव तत्त्व श्लोक में किया है।
आदि-आदि भी समुचित रूपेण प्रतिपादित हुए हैं। १२. महावीर वाणी का प्रतिनिधि सूत्र
यद्यपि उत्तराध्ययन को धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत रखा अविकल उत्तराध्ययन भगवान् महावीर की प्रत्यक्ष गया है, किन्तु अपने वर्तमान आकार में वह चारों अनुयोगों वाणी भले न हो, किन्तु उसमें भगवान् महावीर की वाणी का का संगम है। इस दृष्टि से इसे महावीर-वाणी (आगमों) का जिस समीचीन पद्धति से संगुम्फन हुआ है, उसे देखकर प्रतिनिधि सूत्र कहा जा सकता है। सहज ही यह कहने को मन ललचा उठता है कि यह
१३. उत्तराध्ययन : आकार और विषय-वस्तु महावीर-वाणी का प्रतिनिधि सूत्र है। अहिंसा, अपरिग्रह आदि तत्त्व नवीन नहीं हैं और
उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन हैं। यह संकलित सूत्र भगवान् महावीर के समय में भी नवीन नहीं थे। उनसे पहले है। इसका प्रारंभिक संकलन वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी अनेक तीर्थकर और धर्माचार्य उनका प्रयोग कर चुके थे। के पूर्वार्द्ध में हुआ। उत्तरकालीन संस्करण देवर्द्धिगणी के किन्तु भगवान् महावीर ने तात्कालिक परिस्थितियों के संदर्भ में समय में सम्पन्न हुआ। वर्तमान अध्ययनों के नाम उनको जो अभिव्यक्ति दी, वह उनका नवीन रूप है। भगवान् समवायांग तथा उत्तराध्ययन नियुक्ति में मिलते हैं। उनमें महावीर के समय की सामाजिक परिस्थिति अहिंसा और क्वचित् थोड़ा अन्तर भी हैअपरिग्रह के मुख्य बाधक-तत्त्व ये थे
समवायांग उत्तराध्ययन नियुक्ति (१) दास-प्रथा
१. विणयसुयं विणयसुयं (२) जातिवाद
२. परीसह परीसह (३) पशुबलि
३. चाउरंगिज्जं चउरंगिज्ज (४) अमित संग्रह
४. असंखयं असंख्य (५) दण्ड का उच्छृखल प्रयोग
५. अकाममरणिज्जं अकाममरणं (६) अनियंत्रित भाग
६. पुरिसविज्जा नियंट-खुड्डागनियंठ इन बाधक-तत्त्वों के निरसन के लिए भगवान् महावीर
७. उरब्भिज्जं ओरब्भं ने जिस विचारधारा का प्रतिपादन किया उसका हृदयग्राही
८. काविलिज्जं काविलिज्ज संकलन उत्तराध्ययन में हुआ है।
६. नमिपव्वज्जा णमिपव्वज्जा पार्श्वनाथ के समय में चार महाव्रत थे और सामायिक
१०. दुमपत्तयं
दुमपत्तयं चारित्र था। भगवान् महावीर ने महाव्रत पांच किए और
११. बहुसुयपूजा बहुसुयपुज्ज छेदोपस्थापनीय चारित्र की व्यवस्था की। छेदोपस्थापनीय का
१२. हरिएसिज्जं हरिएस अर्थ है--विभाग-युक्त चारित्र।
१३. चित्तसंभूयं चित्तसंभूइ पूज्यपाद (वि. ५-६ शताब्दी) ने लिखा है : “भगवान्
१४. उसुकारिज्जं उसुआरिज्जं महावीर ने चारित्र-धर्म के तेरह विभाग किए-पांच महाव्रत,
१५. सभिक्खुगं सभिक्खु पांच समितियां और तीन गुप्तियां । ये विभाग पार्श्वनाथ के
१६. समाहिठाणाइं समाहिठाणं समय में नहीं थे।" उत्तराध्ययन में इनका सुव्यवस्थित
१७. पावसमणिज्जं पावसमणिज्जं प्रतिपादन हुआ है।
१८. संजइज्जं सजईज्जं षड्जीवनिकायवाद महावीर के तत्त्ववाद का प्रधान
१६. मियचारिता मियचारिया
१. चारित्रभक्ति , ७:
तिनः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि। चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं परैराचार परमेष्ठिनो जिनमतेर्वीरान् नमामो वयम् ।।
२. प्रथम द्वात्रिंशिका, श्लोक १३ :
य एव षड्जीवनिकायविस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः ।
अनेन सर्वज्ञपरीक्षणमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ।। ३. समवाओ, समवाय ३६।। ४. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १३-१७।
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