Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ उत्तरज्झयणाणि भूमिका परिवर्द्धन का मुख्य भाग सैद्धान्तिक है। उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु का उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मिलता है। 'जैन सिद्धान्त भवन', आरा (बिहार) में प्राप्त धवला की प्रति (पत्र ५४५) में मिलता है—उत्तराध्ययन में उद्गम, उत्पादन और एषणा से सम्बन्धित दोषों के प्रायश्चित्तों का विधान है।'' अंगपण्णत्ति में लिखा है-"बाईस परीषहों और चार प्रकार के उपसर्गों के सहन का विधान, उसका फल तथा इस प्रश्न का यह उत्तर है...यह उत्तराध्ययन का प्रतिपाद्य विषय धवला में यह भी लिखा है कि उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है। हरिवंश पुराण (वि. सं. ८४०) में लिखा है कि उत्तराध्ययन में वीर-निर्वाणगमन का वर्णन है।" इस प्रकार दिगम्बर-साहित्य में उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु का जो वर्णन मिलता है, उसकी संगति उत्तराध्ययन के वर्तमान स्वरूप से नहीं होती। अंगपण्णत्ति का विषय-दर्शन आंशिक रूप से संगत होता है। जैसे (१) बाईस परीषहों के सहन का विधान, देखिएदूसरा अध्ययन। (२) प्रश्नों के उत्तर, देखिए उनतीसवां अध्ययन। प्रायश्चित्त विधि के वर्णन तथा महावीर के निर्वाणप्राप्ति के वर्णन की वर्तमान उत्तराध्ययन के साथ कोई संगति नहीं है। संभव है इन लेखकों के सामने उत्तराध्ययन का कोई दूसरा संस्करण रहा है या भ्रान्त अनुश्रुति के आधार पर ऐसा लिखा है। दिगम्बर-साहित्य से एक बात निश्चित रूप से फलित होती है कि उत्तराध्ययन अंग-बाह्य प्रकीर्णक है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह आरातीय आचार्यों (गणधरों के उत्तर-कालीन आचार्यों) की रचना है।' श्वेताम्बर-साहित्य में उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु का वर्णन वही मिलता है, जो वर्तमान उत्तराध्ययन में प्राप्त है। वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी की पूर्ति के साथ-साथ दशवैकालिक की रचना हो चुकी थी। उत्तराध्ययन उससे पूर्ववर्ती रचना है। वह आचारांग के बाद पढ़ा जाने लगा था। उसे अपनी विशेषता के कारण थोड़े समय में ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो चुका था। इस स्थिति के संदर्भ में यह अनुमान किया जा सकता है कि उत्तराध्ययन के प्रारम्भिक संस्करण की सकलना वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही हो चुकी थी। उत्तराध्ययन के प्रारम्भिक संस्करण की प्राचीनता असंदिग्ध है। उसकी प्राचीनता जानने के दो साधन हैं (१) भाषा-प्रयोग और (२) सिद्धान्त। भाषा-प्रयोग : तीसरे अध्ययन (श्लोक १४) में 'जक्ख' (सं. यक्ष) शब्द का 'अर्चनीय देव' के अर्थ में प्रयोग हुआ है। यह प्रयोग प्राचीनता का सूचक है। यज्ञ के उत्कर्ष काल में ही 'यक्ष' शब्द उत्कर्षवाची था। दोनों की निष्पत्ति एक ही धातु (यज्) से है। यज्ञ का अपकर्ष के साथ-साथ 'यक्ष' शब्द के अर्थ का भी अपकर्ष हो गया। उत्तरकालीन साहित्य में वह देवों की एक हीन जाति का वाचक मात्र रह गया। इसी प्रकार 'पाढव' (३।१३), 'वुसीमओ' (५।१८), 'मिलेक्खुया' (१६१६), 'अज्झत्थ' (६६), 'समिय' (६।४), आदि अनेक शब्द हैं, जो आचारांग और सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगमों में ही मिलते हैं। सिद्धान्त : जातिवाद (अध्ययन १२ और १३), यज्ञ एवं तीर्थस्थान (अध्ययन १२), ब्राह्मणों के लक्षणों का प्रतिपादन (अध्ययन २५)-ये इन अध्ययनों की प्राचीनता के सूचक हैं। ये सम्बन्धित चर्चाओं के उत्कर्ष काल में लिखे गए हैं, अन्यथा शान्त चर्चा का इतनी सप्राणता के साथ प्रतिपादन नहीं हो सकता। इसी तथ्य के आधार पर कहा जा सकता है कि ये अध्ययन महावीर-कालीन अथवा उनके परिपार्श्व-कालीन हैं। संभव है कुछ अध्ययन पूर्ववर्ती भी हों। चिकित्सा का वर्जन (२।३२,३३), परिकर्म का वर्जन (अध्ययन १E), अचेलकता का प्रतिपादन (२।३४, ३५; २३।२६) तथा अचेलकता और सचेलकता की सामंजस्यपूर्ण स्थिति का स्वीकार (२।१२,१३)-ये सभी जैन आचार की प्राचीनतम परम्परा के अवशेष हैं जो उत्तरवर्ती साहित्य में नवीन परंपराओं की पृष्ठभूमि में प्रश्न-चिन्ह बने हुए हैं। उत्तराध्ययन अपने मूल रूप में धर्मकथानुयोग है। १. उत्तरज्झयणं उग्गम्मुप्यायणेसणदोसगयपायच्छित्तविहाणं कालादि विसेसिदं वण्णेदि। अंगपण्णत्ति, २/२५, २६ : उत्तराणि अहिज्जति उत्तरज्झयणं मदं जिणिंदेहि। बावीसपरीसहाणं उवसग्गाणं च सहणविहिं ।। वण्णेदि तफ्फलमवि, एवं पण्हे च उत्तरं एवं। कहदि गुरुसीसयाण, पइण्णिय अट्ठमं तं खु।। ३. धवला, पृ. ६७ (सहारनपुर प्रति) : उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ। ४. हरिवंश पुराण, १०।१३४ : उत्तराध्ययनं वीर-निर्वाण-गमन तथा। तत्त्वार्थवार्तिक, १२०, पृ. ७८ : यद् गणधरशिष्यप्रशिष्यरारातीयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनाविन्यासं तदङ्गबाह्यम्। ............तदभेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधाः । ६. उत्तराध्ययन नियुक्ति, १८-२६ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 ... 770