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भूमिका
विषय-वस्तु की दृष्टि से उत्तराध्ययन के अध्ययन चार भागों में विभक्त होते हैं
(१) धर्मकथात्मक - ७, ८, ६, १२, १३, १४, १८, १९, २०, २१,२२, २३, २५ और २७ ।
(२) उपदेशात्मक — १,३,४,५,६ और १० ।
(३) और ३५ ।
आचारात्मक २, ११, १५, १६, १७, २४, २६, ३२,
(४) सैद्धान्तिक २८, २६, ३०, ३१,३३,३४ और ३६ । आर्यरक्षित सूरि (वि. प्रथम शताब्दी) ने आगमों के चार
वर्ग किए
(१) चरण-करणानुयोग
(२) धर्मकथानुयोग
इस वर्गीकरण में उत्तराध्ययन धर्मकथानुयोग के अंतर्गत गृहीत है।" पर आचारात्मक अध्ययन चरणकरणानुयोग में तथा सैद्धांतिक अध्ययन द्रव्यानुयोग में समाते हैं। इस प्रकार उत्तराध्ययन का वर्तमान स्वरूप अनेक अनुयोगों का सम्मिश्रण है। यह सम्मिश्रण देवर्द्धिगणी के संकलन - काल में हुआ, यह बहुत संभव है।
कुछ विद्वानों का अभिमत है कि उत्तराध्ययन के पहले अठारह अध्ययन प्राचीन हैं और उत्तरवर्ती अठारह अध्ययन अर्वाचीन किन्तु इस अभिमत की पुष्टि के लिए उन्होंने कोई निश्चित हेतु प्रस्तुत नहीं किया है। यह हो सकता है कि कुछ उत्तरवर्ती अध्ययन अर्वाचीन हों, किन्तु सारे उत्तरवर्ती अध्ययन अर्वाचीन हैं, ऐसा मानने के लिए कोई कारण प्राप्त नहीं है। इकतीसवें अध्ययन में आचारांग, सूत्रकृतांग आदि प्राचीन आगमों के साथ-साथ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ जैसे अर्वाचीन आगमों के नाम भी उपलब्ध होते हैं। ये श्रुतकेवली भद्रबाहु (वीर निर्वाण दूसरी शती) द्वारा निर्यूढ या कृत हैं। इसलिए प्रस्तुत अध्ययन भद्रबाहु के बाद की रचना है।
(३) गणितानुयोग
(४) द्रव्यानुयोग ।
अठाइसवें अध्ययन में अंग और अंग बाह्य- इन दो आगमिक विभागों के अतिरिक्त ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद का उल्लेख भी मिलता है। प्राचीन आगमों के चौदह पूर्वी, ग्यारह अंगों या बारह अंगों के अध्ययन का वर्णन मिलता है । किन्तु अंग बाह्य या प्रकीर्णक श्रुत के
१. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. १ अत्र धम्माणुयोगेनाधिकारः ।
२. उत्तरज्झयणाणि, ३१।१६-१८ :
तेवीसइ सूयगडे, रूवाहिएसु सुरेसु अ ।
जे भिक्यू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ।। पणवीसभावणाहिं, उद्देसेसु दसाइणं ।
जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ।। अणगारगुणेहिं च, पकप्पम्मि तहेव य ।
जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्दइ मंडले ।
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(१८)
उत्तरज्झयणाणि
अध्ययन का वर्णन नहीं मिलता, इसलिए यह अध्ययन भी उत्तरकालीन आगम व्यवस्था के आस-पास की रचना प्रतीत होती है।
इस अध्ययन में द्रव्य, गुण तथा पर्याय की परिभाषाएं भी हैं। इनकी तुलना क्रमशः वैशेषिक दर्शन के द्रव्य, गुण और कर्म से की जा सकती है।
उत्तराध्ययन
(१) द्रव्य -
गुणाणमासओ दव्वं (२) गुणएगदव्यस्सिया गुणा
(३) पर्याय
लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे । वैशेषिक दर्शन'
(१) द्रव्य -
क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् । (२) गुण
द्रव्याश्रव्यगुणवान् संयोगीविभागेष्यकारणमनपेस इति गुणलक्षणम् ।
(३) कर्म
एकद्रव्यमगुन संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्।
आगम साहित्य में द्रव्य, गुण और पर्याय की परिभाषा प्रथम बार उत्तराध्ययन में प्राप्त होती है। आगमों में विवरणात्मक अर्थ ही अधिक मिलते हैं, संक्षिप्त परिभाषाएं प्रायः नहीं मिलती। इसकी पूर्ति व्याख्या-ग्रन्थों से होती है। उत्तराध्ययन में ये परिभाषाएं विशेष अर्थ - -सूचक हैं। प्रस्तुत अध्ययन में कर्त्ता वैशेषिक दर्शन की उक्त परिभाषाओं से परिचित रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है। इसलिए यह अध्ययन भी अर्वाचीन संकलन में संकलित हुआ— ऐसा अनुमान होता है । उत्तराध्ययन के प्राचीन संस्करण में कितने अध्ययन संकलित थे और अर्वाचीन संस्करण में कितने अध्ययन संकलित किए गये, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। किन्तु स्थूल रूप में इतना कहा जा सकता है कि प्राचीन संस्करण का मुख्य भाग कथा भाग था और अर्वाचीन
३. (क) दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति, गाथा १ :
वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसयलसुयणाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ।
:
(ख) पंचकल्पभाष्य, गाथा २३, चूर्णि तेण भगवता आयारपकप्प दसाकप्प ववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढा ।
४. (क) उत्तरज्झयणाणि, २८ २१.... . अंगेण बाहिरेण व....।
(ख) वही, २८ २३:
..एक्कारस अंगाई पइष्णगं दिट्ठिवाओ
य ।।
५. वही, २८ । ६ ।
६. वैशेषि दर्शन, प्रथम अध्याय, प्रथम आनिक सूत्र १५-१७।
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