Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ भूमिका (२०) उत्तरज्झयणाणि कोई चर्चा नहीं की कि भगवान् के अन्तिम देशना में इन छत्तीस अध्ययनों का प्ररूपण किया। बृहद्वृत्तिकार शान्त्याचार्य भी परिनिर्वाण के विषय में असंदिग्ध नहीं हैं। केवल चूर्णिकार ने अपना असंदिग्ध मत प्रकट किया है। उत्तराध्ययन के अध्ययनों की संख्या ३६ होने के कारण सहज ही उस ओर ध्यान जाता है कि कल्पसत्र में उल्लिखित ३६ अपृष्ट-व्याकरण ये ही होने चाहिए। यहां यह स्मरणीय है कि समवायांग के छत्तीस अपृष्ट-व्याकरणों का उल्लेख नहीं है। वहां केवल इतना ही बतलाया गया है कि भगवान् महावीर ने अन्तिम रात्रि के समय ५५ कल्याणफल-विपाक वाले अध्ययनों तथा ५५ पाप-फल-विपाक वाले अध्ययनों का व्याकरण कर परिनिर्वृत हुए। समवायांग के छत्तीसवें समवाय में भी इसकी कोई चर्चा नहीं है। उत्तराध्ययन की रचना तथा 'इइ एस धम्मे अक्खाए कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं' जैसे उल्लेखों से यह प्रमाणित नहीं होता कि ये सब अध्ययन महावीर के द्वारा निरूपित हैं। नियुक्ति के साक्ष्य में इसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। अठारहवें अध्ययन के चौबीसवें श्लोक के प्रथसम दो चरण वे ही हैं, जो छत्तीसवें अध्ययन के अंतिम श्लोक के इसके कथा-भाग में भगवान् महावीर के उत्तरकालीन किसी भी राजा, मुनि या व्यक्ति का नाम नहीं है। इससे भी यह ज्ञात होता है कि इसका प्रारम्भिक-संस्करण भगवान् महावीर के निर्वाण-काल के आस-पास ही संकलित हो गया था। ११. क्या उत्तराध्ययन भगवान महावीर की अंतिम वाणी है? कल्पसूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर कल्याणफल-विपाक वाले ५५ अध्ययनों, पाप-फल वाले ५५ अध्ययनों तथा ३६ अपृष्ट-व्याकरणों का व्याकरण कर 'प्रधान' नामक अध्ययन का निरूपण करते-करते सिद्धबुद्ध-मुक्त हो गए। उपर्युक्त उन्द्ररण के आधार पर यह माना जा सकता है कि छत्तीस अपृष्ट-व्याकरण वस्तुतः उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन ही हैं। उत्तराध्ययन के अंतिम श्लोक (३६।२६८) से इसकी पृष्टि की जाती है इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिब्बुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए।। चूर्णिकार ने इसका अर्थ निम्न प्रकार किया हैज्ञातकुल में उत्पन्न वर्द्धमान स्वामी छत्तीस उत्तराध्ययनों का प्रकाशन या प्रज्ञापन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। शान्त्याचार्य ने चूर्णिकार का अनुसरण करते हुए भी इसमें अपनी ओर से दो बातें और जोड़ी हैं। पहली यह है कि भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययनों का अर्थ-रूप में और कुछ अध्ययनों का सूत्र-रूप में प्रज्ञापन किया। दूसरी यह है कि उन्होंने 'परिनिर्वृत' का वैकल्पिक अर्थ 'स्वस्थीभूत' किया है।" नियुक्तिकार ने इन अध्ययनों को जिन-प्रज्ञप्त बतलाया है।' शान्त्याचार्य ने 'जिन' शब्द का अर्थ 'श्रुत-जिन' अर्थात् श्रुत-केवली किया है। नियुक्तिकार के अभिमतानुसार ये छत्तीस अध्ययन श्रुतकेवली आदि स्थविरों द्वारा प्ररूपित हैं। उन्होंने इसकी भी १. कल्पसूत्र, सूत्र १४६ : ......पच्चूसकालसमयंसि संपलियंकनिसन्ने पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाई वागारित्ता पधाणं नाम अज्झयणं विभावमाणे २ कालगए वितिक्कते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २८३ : इति परिसमाप्ती उपप्रदर्शने च, प्रादुःप्रकाशे, प्रकाशीकृत्य-प्रज्ञापयित्वा बुद्धः अवगतार्थः ज्ञातकः-- ज्ञाताकुलसमुद्भवः वर्द्धमानस्वामी, ततः परिनिर्वाणं गतः, किं प्रज्ञापयित्वा? षत्रिंशदुत्तराध्ययनानि। उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ७१२ : इति इत्यनन्तरमुपवर्णितान 'पाउकरे' त्ति सूत्रत्वात् 'प्रादुष्कृत्य' कांश्चिदर्थतः कांश्चन सूत्रतोऽपि प्रकाश्य, कोऽर्थः? प्रज्ञाप्य, किमित्याह 'परिनिर्वृतः' निर्वाणं गत इति सम्बन्धनीयम्, कीदृशः सन् क इत्याह-'बुद्ध' केवलज्ञानादवगतसकलवस्तुतत्त्वः 'ज्ञातको' 'ज्ञातजो' वा-ज्ञातकुलसमुद्भवः, स चेह भगवान् वर्द्धमानस्वामी 'षट्त्रिंशद्' इति षट्त्रिंशत्संख्या १८२४ ३६।२६८ इइ पाउकरे बुद्धे इइ पाउकरे बुद्ध नायए परिनिव्वुडे। नायए परिनिव्वुए। विज्जाचरणसंपन्ने छत्तीसं उत्तरज्झाए सच्चे सच्चपरक्कमे।। भवसिद्धीयसंमए।। अठारहवें अध्ययन के चौबीसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध का जो अर्थ वृत्तिकार ने किया है, वही अर्थ छत्तीसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध का होना चाहिए। वृत्तिकार ने चौबीसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध की व्याख्या इस प्रकार की है—बुद्ध (अवगत तत्त्व), परिनिर्वृत (शीतीभूत), ज्ञातपुत्र महावीर ने इस तत्त्व का प्रज्ञापना किया है। इस अर्थ के संदर्भ में जब हम छत्तीसवें उत्तराः-प्रधाना अधीयन्त इत्यध्याया-अध्ययनानि तत उत्तराश्च तेऽध्यायाश्चोत्तराध्यायास्तान्–विनयश्रुतादीन्......। ४. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ७१२ : अथवा 'पाउकरे' ति प्रादुरकार्षीत प्रकाशितवान्, शेषं पूर्ववत् नवरं 'परिनिर्वृतः' क्रोधादिदहनोपशमतः समन्तात् स्वस्थीभूतः। उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५५६ : तम्हा जिणपन्नत्ते, अणंतगमपज्जवेहि संजुत्ते। अज्झाए जहाजोगं गुरूपसाया अहिज्झिज्जा।। ६. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ७१३ : तसमाज्जिनः--श्रुतजिनादिभिः प्ररूपिताः। ७. समवाओ, समवाय ५५। उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ४४४ : इत्येवंरूपं 'पाउकरे' त्ति प्रादुरकार्षीत्-प्रकटितवान् 'बुद्धाः' अवगततत्त्वः सन् ज्ञात एव ज्ञातकः-जगत्प्रतीतः क्षेत्रयो वा, स चेह प्रस्तावान्महावीर एव, 'परिनिर्वृतः' कषायानलविध्यापनात समन्ताच्छीतीभूतः । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 ... 770