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लोक-विजय
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अनासक्ति ४७. यह (लोक-विजय का) मार्ग तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित है। ४८. जिससे कुशल पुरुष इन [विषयों में लिप्त न हो।
-ऐसा मैं कहता हूं।
तृतीय उद्देशक
समत्व
४९. यह पुरुष अनेक बार उच्च गोत्र और अनेक बार नीच गोत्र का अनुभव कर
चका है । अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त; [इसलिए वह उच्च गोत्र की] स्पृहा न करे।
५०. [यह पुरुष अनेक बार उच्च गोत्र और नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है
-] यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा ? कौन मानवादी होगा? और कौन किसी एक स्थान में आसक्त होगा?
५१. इसलिए पंडित पुरुष [उच्च गोत्र प्राप्त होने पर] हर्षित न हो और [नीच
गोत्र प्राप्त होने पर] कुपित न हो।
५२. तू जीवों [के कर्म-बंध और कर्म-विपाक] को जान और उनके सुख [-दुःख]
को देख।
५३. सम्यग्दर्शी पुरुष इस (इष्ट-अनिष्ट कर्म-विपाक) को देखता है ।
५४. जैसे-कोई अंधा है और कोई बहरा, कोई गूंगा और कोई काना,
कोई लला है, कोई कुबड़ा और कोई बौना, कोई कोढ़ी है और कोई चितकबरा।
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