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२५२ २. धर्म ही मेरा है ; इसलिए मैं तीर्थंकर की आज्ञा से उसका सम्यक पालन करूं।
'मेरा धर्म मेरी आज्ञा में है' यह पारम्परिक अर्थ प्रचलित है। __ 'मामगं धम्म' यह कर्म-पद है; इसलिए 'आणाए' का 'आज्ञाय' रूप मानकर इसका अनुवाद किया गया है।
सूत्र-४७-४९ १५. मुनि-धर्म को स्वीकार कर पुनः गृहवास में चले जाने वाले व्यक्ति को आगमनधर्मा कहा गया है । पुनः गृहवास जाने का कारण है-परीषह सहने की अक्षमता। __ काम आदि अनुकूल परीषहों, आक्रोश, प्रहार आदि प्रतिकूल परीषहों तथा अचेल, भिक्षा जैसे लज्जाजनक परीषहों को सहन करनेवाला पुनः गृहवास में नहीं जाता। वह अनागमन-धर्मा होता है।
भगवान् ने अहिंसा और परीषह-सहन-इन दो लक्षण वाले धर्म का निरूपण किया है। इस धर्म को जानने वाला ही परीषहों के आने पर अविचलित रह सकता है और अविचलित रहने वाला ही जीवन के अन्तिम श्वास तक मुनि-धर्म का पालन कर सकता है।
सब प्रकार के परीषहों को सहना, भयंकर परीषहों के उपस्थित होने पर भी मुनि-धर्म को न छोड़ना, यह उत्तर-वाद है।
सूत्र-५३ १६. सर्वैषणा के द्वारा आहार-ग्रहण से लेकर आहार करने तक की सारी एषणाओं का संकेत दिया गया है। मुनि की सब एषणाएं शुद्ध होनी चाहिए।
सूत्र-६५ १७. कोई मुनि तीन वस्त्र रखता है, कोई दो, कोई एक और कोई निर्वस्त्र रहता है। किन्तु वे एक-दूसरे की अवहेलना नहीं करते, क्योंकि वे सब तीर्थंकर की आज्ञा में विद्यमान हैं। यह आचार की भिन्नता शारीरिक संहनन, धृति आदि हेतुओं से होती है। इसलिए अचेल रहनेवाला सचेल मुनि की अवज्ञा नहीं करता और अपने को उससे उत्कृष्ट भी नहीं मानता । आयार-चूला(५।२१) में बतलाया गया है कि वस्त्र की प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाला मुनि यह न कहे-'वे भदन्त मिथ्या प्रतिपन्न हैं, मैं सम्यक् प्रतिपन्न हूं।' किन्तु यह सोचे-'हम सब तीर्थंकर की आज्ञा के अनुसार संयम का अनुपालन कर रहे हैं।' यह समत्व का अनुशीलन है।
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