Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 375
________________ ३४८ आयारो ३१७ १८. दण्ड के तीन प्रकार हैं- मन-दण्ड, वाणी-दण्ड और शरीर-दण्ड । भगवान् कष्ट देने वाले जीव-जन्तुओं व प्राणियों का स्वयं निवारण नहीं करते थे; उनका निवारण करने के लिए दूसरों से नहीं कहते थे; उनके निवारण के लिए मानसिक संकल्प भी नहीं करते थे । वे मन, वचन और शरीर तीनों को आत्मलीन रखते थे। ३१९ १९. भगवान् निर्वस्त्र थे । लाढवासी लोगों को यह नग्नता पसन्द नहीं थी। इसलिए वे भगवान् के ग्राम-प्रवेश को पसन्द नहीं करते थे। ३।१२ २०. लाढ देश के निवासियों में कुछ लोग भद्र प्रकृति के थे। कुछ लोग सहसा सोचे-समझे बिना काम करने वाले थे। वे भगवान् को आसन से स्खलित कर देते, किन्तु ऐसा करने पर भगवान् रुष्ट नहीं होते। भगवान् के समभाव को देखकर उनका मानस वदल जाता और वे भगवान् के पास आकर अपने अशिष्ट आचरण के लिए क्षमा-याचना करते। जो क्रूर चित्त वाले थे, उनका हृदय-परिवर्तन नही होता था। ४१ २१. अल्पाहार करना सरल कार्य नहीं है। साधारणतया मनुष्य बहुभोजी होते हैं । वे जब रोग से घिर जाते हैं, तब उससे छुटकारा पाने के लिए अल्पाहार करते हैं। भगवान् के शरीर में कोई रोग नहीं था। फिर भी वे साधना की दृष्टि से सर्प की भांति अल्पाहार करते थे। रोग दो प्रकार के होते हैं-धातु -क्षोभ से उत्पन्न और आगन्तुक । भगवान के शरीर में धातु-क्षोभ से होने वाले रोग नहीं थे। मनुष्य और जीव-जन्तुओं द्वारा घाव आदि (आगन्तुक रोग) किए जाते। उनके शमन के लिए भी भगवान् चिकित्सा नहीं कराते थे। ग्वाले ने भगवान् के कान में शलाका प्रविष्ट कर दी । खरक वैद्य ने उसे निकाला और औषधि का लेपन किया। भगवान् ने मन से भी उसका अनुमोदन नहीं किया। ४१२ २२. भगवान् ने दीक्षित होते ही एक संकल्प किया था---'मैं साधना-काल में शरीर का विसर्जन कर रहूंगा।' इस संकल्प के अनुसार वे शरीर के परिकर्म से Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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