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उपधान-श्रुत
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मुक्त रहते थे । जो साधक आत्मा के लिए समर्पित हो जाता है, उसके लिए शरीर की सार-सम्भाल और साज-सज्जा से मुक्त होना आवश्यक है ही । साथ-साथ शरीर की विस्मृति भी आवश्यक है । यह चर्या उसकी विस्मृति का अंग है ।
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२३. भगवती सूत्र वृत्ति (पत्र ७०५ ) में 'अन्न गिलाय ' शब्द की व्याख्या मिलती है । जो अन्न के बिना ग्लान हो जाता है, वह अन्नग्लायक कहलाता है । वह भूख से 'आतुर होने के कारण ताजा भोजन बने तब तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता; इसलिए प्रातःकाल होते ही जो कुछ वासी भोजन मिलता है, उसे खा लेते हैं ।
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२४. प्रमाद छः प्रकार का होता है
१. मद्य प्रमाद
२. निद्रा प्रमाद
३. विषय प्रमाद
४. कषाय- प्रमाद
५. द्युत प्रमाद
६. निरीक्षण ( प्रतिलेखना) प्रमाद
( - स्थानांग सूत्र, ६।४४ )
चूर्णिकार के अनुसार भगवान् ने अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर निद्रा प्रमाद का सेवन नहीं किया ।
वृत्तिकार के अनुसार भगवान् ने कषाय आदि प्रमादों का सेवन नहीं किया । इस पाठ का आशय यह है कि भगवान् जीवन-चर्या चलाते हुए भी प्रतिक्षण अप्रमत्त रहते थे ।
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