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आयारो लिए करते थे। 'जो जैसा घटित होता है, वैसा हो; उसमें मैं कोई हस्तक्षेप न करूं'-इस सहज साधना का प्रयोग वे कर रहे थे।
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११. भगवान् ने गृहवास के दो वर्ष तथा साधना-काल के साढ़े बारह वर्षों में संकल्प-मुक्ति की साधना की। 'मैं अमुक भोजन करूंगा, अमुक नहीं करूंगा। मैं अमुक स्थान में रहूंगा, अमुक स्थान में नहीं रहूंगा। अमुक समय में नींद लूंगा, अमुक समय में नहीं लूंगा'-इस प्रकार शरीर और उसकी आवश्यकतापूर्ति के प्रति उनके मन में कोई प्रतिज्ञा नहीं थी, कोई संकल्प नहीं था। साधना के अनुकूल सहज भाव से जो घटित होता, उसी को वे स्वीकार कर लेते।
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१२. भगवान् ने अपने साढ़े बारह वर्ष के साधना-काल में केवल अन्तर्मुहुर्त ४८ मिनट से कम नींद ली। वह भी एक बार में नहीं, किन्तु अनेक बार में । वे लेटते नहीं थे । खड़े-खड़े या बैठे-बैठे पलभर के लिए झपकी ले लेते और फिर ध्यान में लग जाते । अस्थिक ग्राम में उन्होंने कुछ क्षणों की नींद ली थी। उसमें उन्होंने दस स्वप्न देखे थे।
२१६ १३. भगवान् की साधना के मुख्य तीन अंग हैं१. आहार-संयम २. इन्द्रिय-संयम ३. निद्रा-संयम
वे आन्तरिक अनुभूति की सरसता के द्वारा आहार-संयम या रस-संयम करते थे।
वे आत्म-दर्शन की तन्मयता के द्वारा इन्द्रिय-संयम करते थे।
वे ध्यान के द्वारा निद्रा-संयम करते थे। ग्रीष्म और हेमन्त में नींद अधिक सताती थी। उस समय भगवान् चंक्रमण के द्वारा उस पर विजय पाते थे।
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१४. भगवान् के रूप को देखकर स्त्रियां मुग्ध हो जातीं। वे रात्री के समय उनके पास आ उन्हें विचलित करने का प्रयत्न करतीं । भगवान् का ध्यान भंग नहीं
१. स्थानांग सून, १०११०३; भगतवती सूत्र, १६६१
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