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उपधान-श्रुत
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उन्होंने कहा - कुमार ! तुम स्नान क्यों नहीं करते ? भूमि पर क्यों सोते हो ? भगवान् ने कहा- देहासक्ति और आराम -- ये दोनों स्रोत हैं। मैं स्रोत का संवर चाहता हूं । इसलिए मैंने इस चर्या को स्वीकार किया है ।
१।१९
९. चूर्णि के अनुसार भगवान् ने दीक्षा के समय एक वस्त्र रखा था । तेरह मास बाद उसे विसर्जित कर दिया। फिर उन्होंने किसी वस्त्र का सेवन नहीं किया ।
भगवान् ने दीक्षित होने के बाद प्रथम पारण में गृहस्थ के पात्र में भोजन किया था । उसके बाद वे 'पाणिपात' हो गए । फिर किसी के पात्र में भोजन नहीं किया। एक बार भगवान् नालन्दा की तन्तुवायशाला में विहार कर रहे थे । उस समय गोशालक ने कहा'भंते! मैं आपके लिए भोजन लाऊं ।' 'यह गृहस्थ के पात्र में भोजन लाएगा, ऐसा सोचकर भगवान् ने उसका निषेध कर दिया । केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भगवान् तीर्थंकर हो गए। तब उनके लिए लोहार्य नाम का मुनि गृहस्थों के घर से भोजन लाता था । किन्तु भगवान् उसे हाथ में लेकर ही भोजन करते थे - पात्र में नहीं करते थे ।
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प्रस्तुत वर्णन साधना-कालीन चर्या का है । इसलिए लोहार्य द्वारा लाए जाने वाला भोजन यहां विवक्षित नहीं है । ( द्रष्टव्य, आ० चूर्णि, पृ० ३०६ )
१।२०
१०. भगवान का शरीर विशिष्ट स्वास्थ्य-शक्ति से युक्त था । उनके शरीर में साधारणतया अजीर्ण आदि दोष होने की सम्भावना नहीं थी । फिर भी वे मात्रायुक्त भोजन करते थे । मात्रा से अतिरिक्त भोजन करने वाला शुभ ध्यान आदि क्रियाओं का विधिवत् आचरण नहीं कर सकता । भगवान् शुभ ध्यान आदि के लिए माना युक्त भोजन करते थे ।
भगवान् गृहवास में भी भोजन के प्रति उत्सुक नहीं थे । वे प्रारम्भ से ही इस विषय में अनासक्त थे । प्रव्रजित होने पर साधना काल में वह अनासक्ति चरम बिन्दु पर पहुंच गई।
'मुझे इस प्रकार का भोजन करना है और इस प्रकार का नहीं करना, ' ऐसा संकल्प भगवान् नहीं करते थे । साधना की दृष्टि से वे संकल्प करते थे, जैसे— 'आज मुझे उड़द का भोजन करना है ।'
भगवान् की आंखें अनिमिष थीं । वे पलक नहीं झपकते । उनकी आंखों में कोई रजकण गिर जाता, तो वे उसे निकालते नहीं थे। चींटी, मच्छर या जानवर आदि के काटने पर वे शरीर को खुजलाते नहीं थे। यह सब वे सहज साधना के
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