Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 370
________________ उपधान-श्रुत ३४३ यह कल्पना स्वाभाविक नहीं लगती । स्वाभाविक कल्पना यह हो सकती हैभगवान् ने सर्दी से बचाव के लिए नहीं अपितु लज्जा-निवारण के लिए वस्त्र रखा। निर्ग्रन्थ-परम्परा में ऐसा होता रहा है । लज्जा-निवारण के लिए एकशाटक निर्ग्रन्थों का उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है। कन्धे के आधार से शरीर पर एक वस्त्र धारण करने वाले एकशाटक कहलाते थे। भगवान् की साधना एकशाटक की भूमिका से आगे बढ़ गई, तब वे वस्त्र का सर्वथा परित्याग कर पूर्णतः अचेल हो गए। (आचारांग चूणि, पृ० ३००) श६,७ ४. भगवान् ध्यान के लिए एकान्त स्थान का चुनाव करते थे। यदि एकान्त स्थान प्राप्त नहीं होता, तो मन को एकान्त बना लेते थे-बाह्य स्थितियों से हटाकर अन्तरात्मा में लीन कर लेते थे। क्षेत्र से एकान्त होना और एकान्त क्षेत्र की सुविधा न हो, तो मन को एकान्त कर लेना-यह दोनों ध्यान के लिए उपयोगी हैं। १९ ५. भगवान् प्रतिकूल और अनुकूल दोनों प्रकार के परीषहों को सहन करते थे। एक वीणावादक वीणा बजा रहा था। भगवान् परिव्रजन करते हुए वहां आ पहुंचे। वीणावादक ने भगवान् को देखकर कहा-'देवार्य ! कुछ ठहरो और मेरा वीणावादन सुनो।' भगवान् ने उसका अनुरोध स्वीकार नहीं किया। वे कुछ उत्तर दिए बिना ही चले गए। साधक के लिए यह एक अनुकूल कष्ट है। ११११ ६. भगवान् के माता-पिता का स्वर्गवास हुआ, तब वे अट्ठाइस वर्ष के थे । भगवान् ने श्रमण होने की इच्छा प्रकट की। उस समय नन्दीवर्द्धन आदि पारिवारिक लोगों ने भगवान से प्रार्थना की-'कुमार ! इस समय ऐसी बात कहकर, जले पर नमक मत डालो। इधर माता-पिता का वियोग और उधर तुम घर छोड़कर श्रमण होना चाहते हो, यह उचित नहीं है।' भगवान् ने इस बात पर ध्यान दिया। उन्होंने सोचा-'यदि मैं इस समय दीक्षित होऊंगा, तो बहुत सारे लोग शोकाकुल होकर विक्षिप्त हो जाएंगे। कुछ लोग प्राण त्याग देंगे। यह ठीक नहीं होगा। भगवान् ने बातचीत को मोड़ देते हुए कहा-'आप बतलाएं, मैं कितने समय तक यहां रहूं?' नन्दीवर्द्धन ने कहा-'महाराज और महारानी की मृत्यु का शोक दो वर्ष तक मनाया जाएगा। इसलिए दो वर्ष तक तुम घर में रहो।' भगवान् ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। भगवान् ने कहा-'एक बात मेरी Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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