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धुतं
सूत्र - ७२
२१. दीव शब्द की 'द्वीप' और 'दीप' इन दो रूपों में व्याख्या की जा सकती है । दीप प्रकाश देता है और द्वीप आश्वास । ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं ।
१. संदीन - कभी जल से प्लावित हो जाने वाला और कभी पुनः खाली होने वाला द्वीप । अथवा बुझ जाने वाला दीप ।
२. असंदीन -- जल से प्लावित नहीं होने वाला द्वीप । अथवा सूर्य, चन्द्र, रत्न आदि का स्थायी प्रकाश ।
धर्म के क्षेत्र में सम्यक्त्व आश्वास- द्वीप है । प्रतिपाती सम्यक्त्व संदीन द्वीप और अप्रतिपाती सम्यक्त्व असंदीन द्वीप होता है। ज्ञान प्रकाश- दीप है । श्रुतज्ञान संदीन दीप और आत्म-ज्ञान असंदीन दीप है ।
धर्म का संधान करने वाले मुनि की संयम-रति असंदीन द्वीप या दीप जैसी होती है ।
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सूत्र - ७४
२२. विहग पोत जब अण्डस्थ होता है, तब पंख की उष्मा से पोषण प्राप्त करता है | अण्डावस्था से निकलने के बाद भी कुछ समय तक उसी से पोषण प्राप्त करता है। जब तक वह उड़ने में समर्थ नहीं होता, तब तक माता-पिता द्वारा दिए गए भोजन से वह पोषण प्राप्त करता है। उड़ने में समर्थ होने पर माता-पिता को छोड़ अकेला चला जाता है ।
इससे नवदीक्षित मुनि के व्यवहार की तुलना की गई है। वह प्रव्रज्या, शिक्षा और अवस्था से परिपक्व होता है, तब तक गुरु के द्वारा पोषण प्राप्त करता है और परिपक्व होने पर एक-चर्या करने में भी समर्थ हो जाता है।
सूत्र- -८२
२३. ज्ञान और दर्शन से भ्रष्ट साधक अपने द्वारा आचरित आचार की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं । वे अहिंसा और संयम की कसौटी को छोड़कर सुविधा को आचार की कसौटी के रूप में मान्य करते हैं ।
सूत्र - १००-१०५
२४. धर्म के व्याख्याकार की कुछ अर्हताएं हैं। वे अहिंसा और सत्य की कसौटी के आधार पर निर्धारित हैं । प्रस्तुत आलापक में पांच अर्हताएं प्रतिपादित हैं
१. पक्षपात - शून्यता २. सम्यग्दर्शन
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