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टिप्पण
सूत्र-१ १. जिसके दर्शन, वेश और समाचारी का अनुमोदन किया जा सके, वह समनुज्ञ और जिसके दर्शन, वेश और समाचारी का अनुमोदन न किया जा सके, वह असमनुज्ञ होता है । एक जैन मुनि के लिए दूसरा जैन मुनि समनुज्ञ तथा अन्य दार्शनिक भिक्षु असमनुज्ञ होता है।
मुनि के लिए यह कल्प निर्धारित है कि वह सार्मिक मुनि को ही आहार दे सकता है और उससे ले सकता है । सार्मिक पार्श्वस्थ आदि शिथिल आचार वाला मुनि भी हो सकता है । मुनि उन्हें न आहार दे सकता है और न उनसे ले सकता है। इसलिए सामिक के साथ दो विशेषण और जोड़े जाते हैं (निसीहज्झयणं, २०४४)-सांभौगिक और समनुज्ञ । कल्पमर्यादा के अनुसार जिनके साथ आहार आदि का सम्बन्ध होता है, वह सांभौगिक और जिनकी सामाचारी समान होती है, वह समनुज्ञ कहलाता है। निसिहज्झयणं (१५०७६-९७) में अन्य तीथिक, गृहस्थ और पार्श्वस्थ आदि को अशन, वस्त्र, पान, कम्बल, पादप्रोंछन देने का प्रायश्चित बतलाया गया है ।
सूत्र--४ २. प्राणियों के प्राणों का अपहरण करना अदत्त है। प्राण-वध करने वाला केवल हिंसा का ही दोषी नहीं है, साथ-साथ अदत्त का भी दोषी है। हिंसा का सम्बन्ध अपनी भावना से है, किन्तु प्राणी अपने प्राणों के अपहरण की अनुमति नहीं देते; इसलिए अदत्त का सम्बन्ध म्रियमाण प्राणियों से भी है। (मिलाइए, आयारो ११५७ ।)
सूत्र-७ ३. 'लोक वास्तविक है और 'लोक वास्तविक नहीं है'-ये दोनों एकान्तवाद हैं। वास्तविकता को स्वीकार किए बिना अवास्तविकता को प्रमाणित नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार अवास्तविकता को स्वीकार किए बिना वास्तविकता को
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