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उपधान-श्रुत
३२३ ९. भगवान् दुःसह रूखे वचनों पर ध्यान ही नहीं देते। उनका पराक्रम आत्मा में __ ही लगा रहता था। भगवान् आख्यायिका, नाट्य, गीत, दण्डयुद्ध और
मुष्टियुद्ध [-इन कौतुकपूर्ण प्रवृत्तियों] में रस नहीं लेते थे।
१०. कामकथा और सांकेतिक बातों में आसक्त व्यक्तियों को भगवान् हर्ष और
शोक से अतीत होकर मध्यस्थ भाव से देखते थे। भगवान् इन दुःसह [अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों में स्मृति भी नहीं लगाते, इसलिए उनका पार पा जाते।
११. भगवान् [माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् ] दो वर्ष से कुछ अधिक समय
तक गृहवास में रहे। उस समय उन्होंने सचित्त [भोजन और] जल का सेवन नहीं किया। वे परिवार के साथ रहते हुए भी अन्तःकरण में अकेले रहे। उनका शरीर, वाणी, मन और इन्द्रिय-सभी सुरक्षित थे। वे सत्य का दर्शन और शान्ति का अनुभव कर रहे थे। [इस गृहवासी साधना के बाद] उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया।
१२. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, पनक (फफूंदी), बीज, हरियाली
और त्रसकाय-इन्हें सब प्रकार से जानकर
१३. इनके अस्तित्व को देखकर, 'ये चेतनावान् हैं'-यह निर्णय कर, विवेक कर
भगवान् महावीर उनके आरम्भ का वर्जन करते हुए विहार करते थे।
१४. स्थावर जीव नस-योनि में उत्पन्न हो जाते हैं । त्रस जीव स्थावर-योनि में
उत्पन्न हो जाते हैं। जीव सर्वयोनिक हैं-प्रत्येक जीव प्रत्येक योनि में उत्पन्न हो सकता है । अज्ञानी जीव अपने ही कर्मों के द्वारा विविध रूपों की रचना करते रहते हैं।'
१५. 'अज्ञानी मनुष्य परिग्रह का संचय कर छिन्न-भिन्न होता है, इस प्रकार ___ अनुचिन्तन कर तथा सब प्रकार से कर्म-बंधन को जानकर भगवान् ने पाप
का प्रत्याख्यान किया।
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