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उपधानं श्रुत
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११. [ भगवान् एकान्त में ध्यान करते, तब ] कुछ अकेले घूमने वाले लोग आकर पूछते [ - 'तुम कौन हो ? कहां से आए हो ? यहां क्यों खड़े हो ? ] [ कभीकभी रात्रि में पारदारिक लोग आते और पूछते- 'तुम सूने घर में क्या करते हो ? ] भगवान् उन्हें उत्तर नहीं देते, तब वे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते । [ ऐसा होने पर भी ] भगवान् समाधि में लीन रहते; उनके मन में प्रतिकार का कोई संकल्प भी नहीं उठता ।
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१२. [ भगवान् ने उपवन के अन्तर आवास में ध्यान किया, तब प्रतिदिन आने वाले व्यक्तियों ने वहां आकर पूछा - ] 'यह भीतर कौन है ?' भगवान् ने कहा - 'मैं भिक्षु हूं ।' [ उन्होंने कहा – 'यह स्थान किसने दिया ? हमारी क्रीड़ा - भूमि में क्यों खड़े हो ?' भगवान् वहां से चले गए] | यह उनका उत्तम धर्म है । उन व्यक्तियों के उत्तेजित होने पर भी भगवान् मौन और ध्यान में लीन रहे ।
१३. जिस शिशिर ऋतु में ठंडी हवा चलने पर [ अल्प वस्त्र वाले लोग ] कांप उठते थे, उस ऋतु में हिमपात होने पर कुछ अनगार भी हवा-रहित अगार की खोज करते थे ।
१४. वे वस्त्रों में लिपट जाने का संकल्प करते थे । कुछ संन्यासी 'ईंधन जला, किवाड़ों को बन्द कर उस सर्दी को सह सकेंगे,' इस संकल्प से ऐसा करते थे; क्योंकि हिम के स्पर्श को सहन करना बहुत ही कष्टदायी है ।
१५. उस शिशिर ऋतु में भी भगवान् [ हवा-रहित अगार की खोज और वस्त्रों के परिधान का ] संकल्प नहीं करते थे । वे समभाव में एकाग्र होकर मंडप में [ खड़े-खड़े] सर्दी को सहन करते थे। रात को सर्दी प्रगाढ़ हो जाती, तब भगवान् उस मंडप से बाहर चले जाते । [ वहां से फिर मंडप में आ जाते और फिर बाहर चले जाते । ] इस प्रकार भगवान् सम्यक्तया उसे सहन करने में समर्थ होते ।
१६. मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया ।
- ऐसा मैं कहता हूं
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