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विमोक्ष अनिवार्यता बतलाई गई है।
सूत्र-३८-३९ १०. चूणिकार और वृत्तिकार ने सन्निधान का अर्थ कर्म किया है। किन्तु वह प्रसंगानुसारी नहीं लगता। यहां सन्निधान का अर्थ 'भोजन आदि पदार्थों का संग्रह' होना चाहिए। 'लोक-विजय' के पांचवं उद्देशक (२।१०४-१११) में इस विषय का विस्तृत वर्णन है। यहां उसी का संक्षेप है। उसके सन्दर्भ में सन्निधान का यही अर्थ घटित होता है।
सूत्र-४३ ११. भिक्षु के लिए तीन शाटक (उत्तरीय, प्रावरण या 'पछेवड़ी') रखने का विधान है। उनमें दो सूती और एक ऊनी होना चाहिए। उन्हें ओढ़ने की विधि यह रही है-पहले सूती वस्त्र ओढ़ना चाहिए, फिर सर्दी लगे, तो फिर सूती वस्त्र ओढ़ना चाहिए। इस पर भी सर्दी लगे, तो ऊनी वस्त्र ओढ़ना चाहिए। सर्वत्र ऊनी वस्त्र बाहर ओढ़ने की विधि रही है।
सूत्र-४६ १२. वस्त्र न धोए, न रंगे और धोए-रंगे वस्त्रों को धारण न करे-यह यथापरिगृहीत वस्त्र की व्यवस्था है। यह निषेध विभूषा की दृष्टि से किया गया है। (देखें, निसीहज्झयणं, १६३१५४)
सूत्र-४८ १३. 'अवम' गणना और प्रमाण दो दृष्टियों से विवक्षित है । गणना की दृष्टि से तीन वस्त्र रखने वाला अवम-चेलिक होता है। प्रमाण की दष्टि से दो रत्नी (मुट्ठी बंधा हुआ हाथ) और घुटने से कटि तक चौड़ा वस्त्र रखने वाला अवम-चेलिक होता है। (देखें, निशीथ भाष्य, १६॥३९ । गा० ५७८६)।
सूत्र-५०-५३ १४. हेमन्त ऋतु के बीत जाने पर वस्त्रों को धारण करने की विधि इस प्रकार रही है-ग्रीष्म ऋतु आने पर तीनों वस्त्रों को विसर्जित कर दे । सर्दी के अनुपात में दो, फिर एक वस्त्र रखे । सर्दी का अत्यन्त अभाव होने पर अचेल हो जाए। यह सर्दी की दृष्टि से वस्त्र-विसर्जन की विधि है।
जीर्णता की दृष्टि से-यदि वे वस्त्र जीर्ण हो गए हों-आगामी हेमन्त ऋतु में काम आने योग्य न हों, तो उन तीनों वस्त्रों को विसर्जित कर दे । आठ मास तक
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