Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 319
________________ आयारो २९२ १०२. लाघवियं आगममाणे, १०३. तवे से अभिसमन्नागए भवइ । १०४. जमेयं भगवता पवेइयं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। संलेहणा-पदं १०५. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुट्वेण परिवहित्तए, से आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुब्वेणं आहारं संवर्दृत्ता, कसाए पयणुए किच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे। इंगिणिमरण-पदं १०६. अणुपविसित्ता गामं वा, णगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, सण्णिवेसं वा, णिगमं वा, रायहाणि वा, तणाई जाएज्जा, तणाइं जाएत्ता, से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे अप्प-पाणे अप्प-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंग-पणग-दगमट्टिय-मक्कडासंताणए, पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जियपमज्जिय तणाई संथरेज्जा, तणाइं संथरेत्ता एत्थ वि समए इत्तरियं कुज्जा। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_03

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