Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 332
________________ विमोक्ष ३०५ ८. वह [जल-वजित या जल-सहित] आहार का प्रत्याख्यान कर शान्त भाव से लेट जाए। उस स्थिति में [भूख, प्यास या अन्य परीषहों से] स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे । मनुष्य-कृत अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर भी मर्यादा का अतिक्रमण न करे । ९. संसर्पण करने वाली [चींटी आदि], आकाशचारी [गीध आदि] तथा बिलवासी (सर्प आदि) शरीर का मांस खाएं, [मच्छर आदि] रक्त पीएं, तब भी उनकी हिंसा न करे और रजोहरण से उनका प्रमार्जन (निवारण) न करे। १०. [वह यह भावना करे----] 'ये प्राणी मेरे शरीर का विघात कर रहे हैं, [किन्तु मेरे आत्म-गुणों का विघात नहीं कर रहे हैं] ।' उनसे त्रस्त होकर स्थान (या आत्म-भाव) से विचलित न हो । आश्रवों के पृथग हो जाने के कारण [अमृत से अभिषिक्त की भांति] तृप्ति का अनुभव करता हुआ उन उपसर्गों को सहन करे। ११. उनकी ग्रन्थियां खुल जाती हैं और वह अनशन की प्रतिज्ञा का पार पा जाता है। इंगित मरण यह (इंगिणि मरण अनशन) [भक्त-प्रत्याख्यान की अपेक्षा] उच्चतर है। इसे अतिशय ज्ञानी (कम से कम नव पूर्वधर') और संयमी भिक्षु ही स्वीकार करते हैं। १२. भगवान महावीर ने इंगिणिमरण अनशन का आचार-धर्म भक्त-प्रत्यख्यान से भिन्न प्रतिपादित किया है । इस अनशन में भिक्षु सीमित स्थान में स्वयं उठना, बैठना या चंक्रमण कर सकता है, किन्तु उठने, बैठने और चंक्रमण करने में ] दूसरे का सहारा न ले-मनसा, वाचा, कर्मणा दूसरे का सहारा न ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे। + आगमों के एक वर्गीकरण का नाम पूर्व है। वे संख्या में चौदह थे। उसमें विशाल श्रुतज्ञान संकलित था। वर्तमान में वे उपलब्ध नहीं हैं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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