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विमोक्ष
प्रथम उद्देशक
असमनुज्ञ का विमोक्ष
१. मैं कहता हूं
[ भिक्षु ] समनुज्ञ ( पार्श्वस्थ आदि) और असमनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोछन न दे, न उन्हें देने के लिए निमन्त्रित करे, न उनके कार्यों में व्यापृत हो; यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे। ऐसा मैं कहता हूं ।'
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२. [ असमनुज्ञ भिक्षु मुनि से कहे - ] 'तुम निरन्तर ध्यान रखो - [ हमारे मठ में प्रतिदिन ] अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन [ उपलब्ध है ] । तुम्हें ये प्राप्त हों या न हों, तुम भोजन कर चुके हो या न कर चुके हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो, तुम अपने [हम से भिन्न ] धर्म का पालन करते हुए, वहां आओ और जाओ । इस प्रकार असमनुज्ञ भिक्षुओं के अनुरोध को मानकर मुनि के वहां जाने पर वह अशन आदि दे, निमन्त्रित करे और मुनि के कार्यों में व्यापृत हो, तो उसे कुछ भी आदर न दे - उसकी उपेक्षा कर दे । ऐसा मैं कहता हूं ।
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असम्यग् आचार
३. कुछ भिक्षुओं को आचार - गोचर सम्यग् उपलब्ध नहीं होता । वे [पचन, पाचन आदि ] आरम्भ के अर्थी होते हैं, आरम्भ करने वाले का समर्थन करते हैं, स्वयं प्राणियों का वध करते हैं, करवाते हैं और करने वालों का अनुमोदन करते हैं ।
४. अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं । '
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