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सूत्र १३ ४. एक जीव दूसरे जीव को कष्ट देता है, उसके सामान्य हेतु दो हैं
(१) आहार (२) प्रतिशोध ।
सूत्र-१४-१६ ५. एक जीव दूसरे जीव को सताता है-यह इस जगत् में होने वाला महान् भय है। नाना प्रकार के दुःखों का होना भी महान् भय है। इनके होने पर भी मनुष्य काम-भोगों में आसक्त हैं, यह कितना आश्चर्य है !
सूत्र-१८ ६. 'परलोक है या नहीं ? उसे किसने देखा है ? फिर यह भय क्यों होना चाहिए कि परलोक अच्छा नहीं होगा ? किया हुआ कर्म अगले जन्म में भुगतना होगाइस सिद्धान्त का क्या अर्थ है ?'-इस प्रकार का चिन्तन धृष्टता का लक्षण है।
सूत्र--२५ ७. गर्भ के प्रथम सप्ताह में कलल (भ्र ण), दूसरे सप्ताह में अर्बुद (बुदबुद) और अर्बुद के पश्चात् पेशी का निर्माण होता है। कलल अवस्था के लिए 'अभिसंभूत', अर्बुद और पेशी-इन दो अवस्थाओं के लिए 'अभिसंजात' और अंगोपांगनिर्माण की अवस्था के लिए 'अभिनिर्वृत्ति' शब्द प्रयुक्त किए गए हैं।
सूत्र-३२ ८. परीषह दो प्रकार के होते हैं-अनुकूल और प्रतिकूल । शब्द, रूप आदि इन्द्रिय-विषय अनुकूल परीषह हैं। उनके प्राप्त होने पर व्यापार और उनके निवृत्त होने पर उनकी स्मृति करने वाला अनुकूल परीषहों को सहन नहीं कर सकता। उनके प्राप्त होने पर अव्यापार और उनके निवृत्त होने पर अस्मृति करने वाला अनुकूल परीषहों को सहन कर सकता है। प्रतिकूल परिषहों के सहन और असहन का भी यही क्रम है।
सूत्र-३३ ९. काम निर्विघ्न नहीं होता। मृत्यु उसका सबसे बड़ा विघ्न है।
सूत्र-३४ १०. विघ्न, द्वन्द्व और अपूर्णता-ये काम के साथ जुड़े हुए हैं। मनुष्य सुख की
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