________________
२५१
पंचम उद्देशक
तितिक्षा धुत ६६. गृहों में, गृहान्तरों में, ग्रामों में, ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में,
जनपदों में, जनपदान्तरों में परिव्रजन करते हुए या कायोत्सर्ग में स्थित मुनि को कुछ लोग अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग देते हैं अथवा [सर्दी, गर्मी, दंशमशक आदि के ] स्पर्श प्राप्त होते हैं। [उनसे] स्पृष्ट होने पर वीर मुनि उन सबको सहन करे।
धर्मोपदेश धुत १००. पक्षपात-रहित और सम्यग्-दर्शनी मुनि [धर्म की व्याख्या करे] ।२४
१०१. आगमज्ञ मुनि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर–सभी दिशाओं और
विदिशाओं में जीव-लोक की दया को ध्यान में रखकर [धर्म की] व्याख्या, उसके विभाग का निरूपण और उसके [परिणाम का प्रतिपादन करे।२४
१०२. धर्म सुनने के इच्छुक मनुष्यों के बीच, फिर वे [धर्माचरण के लिए] उत्थित
हो या अनुत्थित, मुनि शांति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच [अलोभ], आर्जब, मार्दव, लाघव (उपकरण आदि की अल्पता) और अहिंसा का प्रतिपादन करे।
१०३. भिक्षु सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के सामने विवेकपूर्वक धर्म की
व्याख्या करे।२४
१०४. विवेकपूर्षक धर्म की व्याख्या करता हुआ भिक्षु न अपने-आप को बाधा
पहुंचाए, न दूसरे को बाधा पहुंचाए और न अन्य प्राणी, भूत, जीव और सत्वों को बाधा पहुंचाए।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org