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धुत
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१०५. दूसरों को बाधा न पहुंचाने वाला, जीवों की हिंसा का निमित्त बने [ऐसा
उपदेश न देने वाला] तथा आहार आदि की प्राप्ति के लिए [धर्मकथा नहीं करने वाला]- महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए वैसे ही शरण होता है जैसा [समुद्र में डूब रहे जल- यात्रियों के लिए] जल से अप्लावित द्वीप।
कषाय-परित्याग धुत १०६. इस प्रकार [संयम-साधना के लिए उत्थित, स्थितात्मा, अपनी शक्ति का
गोपन नहीं करने वाला, परीषह से अप्रकम्पित, कर्म-समूह को प्रकम्पित करनेवाला और अध्यवसाय को संयम में लीन रखने वाला मुनि [अप्रतिबद्ध होकर] परिव्रजन करे।
१०७. दृष्टिमान् मुनि उत्तम धर्म को जानकर [विषय और कषाय को] शान्त
करे।
१०८. इसलिए (विषय और कषाय को शान्त करने के लिए) तुम आसक्ति को
'
देखो।५
१०९. धन-धान्य आदि वस्तुओं में आसक्त और [विषयों में निमग्न मनुष्य
काम से बाधित होते हैं।
११०. इसलिए मुनि संयम से उद्विग्न न हो।
१११. जिन आरम्भों से ये हिंसक मनुष्य उद्विग्न नहीं होते, उन (आरम्भों) को
सब प्रकार से, सर्वात्मना छोड़ देने वाला मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन कर [मोह के बंधन को तोड़ डालता है] ।
* चूणिकार ने अणासादमाणे का अर्थ किया है-मुनि उस प्रकार का धर्म न कहे, जिससे प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की आशातना हो । इसका वैकल्पिक अर्थ वह किया है, जो अनुवाद में स्वीकृत है---"अणासातमाणोत्ति तहा ण कहेति जहा पाणभूयजीवसत्ताणं आसायणा भवति, अप्पं वा, अहवा फम्मं कहेंतो ण किंचि आसादए अन्नं वा पाणं वा, जं भणितं--तदट्ठा ण कहेति ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ "दूसरे के द्वारा आशातना न कराता हुआ" किया है"परैरनाशातयन् ।" + विप्पिया-विग्यतत्ति (विघ्नता) विप्पितत्ति एगढ़-चूणि, पृ० २४२ ।
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