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लोकसार
'चत्तारि दुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ, तंजहा
तत्थ खलु इमा पढमा वुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पoasए णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं णो सद्धहति णो पत्तियति णो रोएइ, णिग्गंथं पावतणं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमा वज्जति - पढमा दुहसेज्जा ।
खिन्नता को मिटाने का आलम्बन सूत्र इससे अगला है ।
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सूत्र - ६६
३८. सब मुनि प्रत्यक्षदर्शी नहीं होते । सबका ज्ञान भी समान नहीं होता और भावधारा भी समान नहीं होती । परोक्षदर्शी किसी व्यवहार का अपनी मध्यस्थ दृष्टि से निर्णय करता है, वह व्यवहार वास्तव में सम्यग् है या असम्यग्, इसका निर्णय वह नहीं कर सकता । इस स्थिति में सूत्रकार ने यह बताया कि जिसका अध्यवसाय शुद्ध है, जिसकी दृष्टि मध्यस्थ है, वह व्यवहार नय से किसी व्यवहार की स्थापना करता है । वह व्यवहार उसके लिए सम्यग् है । इसी प्रकार उसके द्वारा स्थापित असम्यग् व्यवहार उसके लिए असम्यग् है, भले फिर वह वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग् ।
( ठाणं ४१४५० ) ।
मध्यस्थ भाव से सम्यग् व्यवहार करने वाला श्रमण सत्य का आराधक होता है । यही तथ्य प्रस्तुत सूत्र में वर्णित है। पांच व्यवहारों के वर्णन से इसकी पूर्ण संगति है । (देखें, ठाणं, ५।१२४) ।
सूत्र - ९९
३६. गति का तात्पर्य है - ज्ञान और दर्शन की स्थिरता, चारित्र की निष्प्रकम्पता, श्रुतज्ञान की योग्यता आदि -आदि ।
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सूत्र--१०१
४०. भगवान् महावीर आत्मतुलावाद के प्ररूपक थे । प्रस्तुत सूत्र में आत्मा की एकता का प्रतिपादन है। इसका प्रयोजन दो भिन्न आत्माओं की अनुभूति की एकरूपता सिद्ध करना है । 'जिसे तू हन्तव्य मानता है, वह तू ही है' -इसका तात्पर्य है - दूसरे के द्वारा आहत होने पर जैसी अनुभूति तुझे होती है, वैसी ही अनुभूति उसे होती है, जिसे तू आहत करता है ।
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