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८२. कुछ ज्ञान-भ्रष्ट, दर्शन-ध्वंसी और [संयम से] निवर्तमान मुनि आचार-गोचर
की व्याख्या करते हैं। २३
८३. [तीर्थंकर की आज्ञा और आचार्य के प्रति] नत होते हुए भी कुछ मुनि
[मोहवश संयम-] जीवन को ध्वस्त कर देते हैं।
८४. कुछ साधक (परीषहों से) स्पृष्ट होकर केवल (सुखपूर्ण) जीवन जीने के
लिए संयम को छोड़ देते हैं।
८५. उन (संयम को छोड़ देने वाले मुनियों) का गृहवास से निष्क्रमण भी
दुनिष्क्रमण हो जाता है।
८६. वे साधारण जन के द्वारा भी निन्दनीय होते हैं और [विषय में आसक्त होने
के कारण] बार-बार जन्म को प्राप्त होते हैं ।
८७. वे [ज्ञान की]निम्न भूमिका में होते हुए भी अपने को विद्वान् मानकर अहं का
ख्यापन करते हैं।
८८. वे मध्यस्थ (अहंकार-शून्य) मुनियों के लिए परुष वचन बोलते हैं।
८९. वे [उन मध्यस्थ मुनियों को उनके गृहवास के ] कर्म की [स्मृति दिलाकर]
अथवा [असभ्य शब्दों का प्रयोग कर तथा तथ्यहीन आरोप लगाकर परुष बोलते हैं।
९०. [धर्म-शून्य व्यक्ति ऐसा आचरण करता है; ] इसलिए मेधावी को धर्म
जानना चाहिए।
९१. [धर्म-शून्य साधक को आचार्य इस प्रकार अनुशासित करते हैं
"तू अधर्मार्थी है, बाल है, आरंभार्थी है, [आरम्भ करने वालों का] समर्थक है, तू प्राणियों का वध कर रहा है, करवा रहा है, करने वाले का अनुमोदन कर रहा है। भगवान् ने घोर (सर्वाश्रव संवर रूप) धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी उपेक्षा कर रहा है।"
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