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७५. इसी प्रकार दिन और रात क्रमानुसार शिक्षित शिष्य [आत्म-साधन में समर्थ हो जाते हैं।
-ऐसा मैं कहता हूं।
चतुर्थ उद्देशक
गौरव-त्याग धुत ७६. उन पराक्रमी और प्रज्ञावान [गरुजनों के द्वारा वे शिष्य इस प्रकार [विहग
पोत के संवर्धन-क्रम की भांति] दिन और रात क्रमानुसार शिक्षित किए जाते हैं।
७७. उनके पास प्रज्ञान को प्राप्त कर और उपशम का अभ्यास करके [भी] कुछ
शिष्य ज्ञान-मद से उन्मत्त होकर परुषता का आचरण करते हैं-गुरुजनों की वाणी और व्यवहार के प्रति अनादर प्रदर्शित करते हैं।
७८. वे ब्रह्मचर्य (गुरुकुलवास) में रहकर भी [आचार्य की] आज्ञा को 'यह
[तीर्थकर की आज्ञा] नहीं है' [यह कह कर अस्वीकार कर देते हैं ।
७९. कुछ पुरुष धर्म-उपदेश को सुनकर, समझकर, 'अनुत्तर संयम का जीवन
जीएंगे' इस संकल्प से दीक्षित होकर उस संकल्प के प्रति सच्चे नहीं होते । वे कषाय की अग्नि से दग्ध, काम-भोगों में आसक्त वा [ऋद्धि, रस और सुख के प्रति] लोलुप होकर तीर्थंकर के द्वारा आख्यात समाधि (इन्द्रिय और मन का संयम) का सेवन नहीं करते [तथा आचार्य के द्वारा शास्ता के वचन का प्रामाण्य उपस्थित कर प्रेरित किए जाने पर] शास्ता के लिए ही परुष वचन बोलते हैं।
८०. वे शीलवान्, उपशान्त तथा प्रज्ञा-पूर्वक संयम में गतिशील मुनियों को
अशीलवान् बतलाते हैं।
८१. यह उन मंदमतियों की दोहरी मूर्खता है।
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