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द्वितीय उद्देशक
कर्म-परित्याग धुत ३०. [स्नेह, काम आदि से] आतुर लोक को जान, पूर्व संयोग को छोड़, उपशम
का अभ्यास कर, ब्रह्मचर्य (चारित्र अथवा गुरुकुलवास) में वास कर, पूर्ण या अपूर्ण धर्म को यथार्थ रूप में जानकर भी कुछेक कुशील मुनि चारित्र-धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते।
३१. वे वस्त्र, पान, कम्बल और पादपोंछन (रजोहरण) को छोड़ देते हैं।
३२. उत्तरोत्तर आने वाले दुःसह परीषहों को नहीं सह सकने के कारण [वे मुनि
धर्म को छोड़ देते हैं।
३३. वह काम-मूर्छा से [मुनि-धर्म को छोड़ता है] ; उसी क्षण, मुहूर्त भर में
अथवा किसी भी समय उसकी मृत्यु हो सकती है।'
३४. इस प्रकार वे विघ्न और द्वंद्वयुक्त कामों का पार नहीं पा सकते ।"
३५. कोई व्यक्ति [मुनि] धर्म में दीक्षित हो, इन्द्रिय और मन को समाहित कर _ विचरण करता है।
३६. वह अनासक्त और दृढ़ होकर [धर्म का आचरण करता है ।
३७. समग्र आसक्ति को छोड़कर [धर्म के प्रति समर्पित होने वाला महामुनि
होता है।
३८. वह सब प्रकार से संग का परित्याग कर [यह भावना करे-1 'मेरा कोई
नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं।'
x जिसकी धृति और शरीर का संहनन सुदृढ़ होता है, वह आरोपित भार को पार पहुंचा देता
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