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लोक-विजय
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७४. अज्ञानी पुरुष स्नेहवान और काम-प्रिय होकर दुःख का शमन नहीं कर पाता।
वह [शारीरिक और मानसिक दुःखों से] दुःखी बना हुआ दुःखों के आवर्त में अनुपरिवर्तन करता है।
-ऐसा मैं कहता हूं।
चतुर्थ उद्देशक भोग और भोगी के दोष ७५. उसके पश्चात् [अर्थ-संचय होने पर भी] एकदा (भोगकाल में) मनुष्य के
शरीर में रोग के उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं (-वह उसका भोग कर ही नहीं पाता)।
७६. वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन एकदा उसके तिरस्कार की पहल
करते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार करने लग जाता है।
७७. हे पुरुष ! वे स्वजन तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें
वाण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।
७८. दुःख और सुख प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना होता है-यह जानकर
[मनुष्य इन्द्रिय और मन पर विजय प्राप्त करे] ।
७६. [अजितेंद्रिय पुरुष भोग के विषय में ही सोचते रहते हैं।
८०. [यह भोग-चिंता] उन कुछ मनुष्यों के होती है, [जो भोग के विपाक को
नहीं जानते।
८१. अपने, पराए या दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से उसके पास अल्प या बहुत अर्थ
की मात्रा हो जाती है।
८२. वह उस अर्थ-राशि में आसक्त रहता है और भोग के लिए उसका संरक्षण
करता है।
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