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आयारो
मासिक आदि) की साधना करता है।
ध्यान व तप की साधना के औचित्य और क्षमता के अनुपात में ही स्थूल शरीर के आपीडन, प्रपीडन और निष्पीडन का निर्देश दिया गया है। कर्म-शरीर का आपीडन, प्रपीडन और निष्पीडन इसी के अनुरूप होगा। शरीर से चेतना के भेदकरण की भी ये तीन भूमिकाएं हैं।
सूत्र-४२ ९. भगवान महावीर ने जीवन-कालीन संयम का विधान किया था। रुचिकर विषयों को छोड़कर जीवन-पर्यन्त उनकी आकांक्षा न करना बहुत कठिन मार्ग है, इस पर चलना सरल नहीं है ; अत: इसको दुरनुचर कहा है।
सूत्र-४३ १०. मांस और रक्त का उपचय मैथुन संज्ञा उत्पन्न होने का एक कारण है। इसलिए मुनि को उनका उपचय नहीं करना चाहिए। प्रश्न होता है कि मांस और रक्त शरीर के आधारभूत तत्त्व हैं और शरीर धर्म का आधार है। फिर उनका अपचय क्यों करना चाहिए ? उनके अपचय का अर्थ अत्यन्त अल्पता नहीं है, किन्तु उपचय को कम करना है और उतना कम करना है कि जितना मांस और रक्त मोह की उत्पत्ति का हेतु न बने।
सार-रहित आहार करने से रक्त का उपचय नहीं होता। उसके बिना क्रमशः मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य का उपचय नहीं होता। इस प्रकार सहज ही आपीडन की साधना हो जाती है।
सूत्र-४५ ११. आज्ञा के दो अर्थ हो सकते हैं-श्रुत-ज्ञान और उपदेश । ज्ञान या उपदेश का सार है-आचार । आचार का सार है कर्म-निर्जरा और मोक्ष । विषयलोलुप साधक बहुश्रुत होता हुआ भी सम्यग् आचरण, कर्म-निर्जरा नहीं कर पाता-मोक्ष की दिशा में गतिशील नहीं हो पाता।
सूत्र-४६ १२. भोगेच्छा के संस्कार का उन्मूलन नहीं होता, तब तक वह साधना-काल में भी समय-समय पर उभर आता है। अतएव कभी-कभी जितेन्द्रिय साधक भी अजितेन्द्रिय बन जाता है। किन्तु, साधना के द्वारा जब भोगेच्छा का संस्कार उन्मलित हो जाता है, क्षीण हो जाता है, तब भोगेच्छा की त्रैकालिक निवृत्ति हो जाती है । फिर वह न पहले होती, न पीछे होती और न मध्य में होती-कभी भी
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