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लोकसार
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४१. [भगवान् महावीर ने परिषद् के बीच कहा-"जैसे मैंने ज्ञान, दर्शन और
चारित्र की समन्वित आराधना की है, वैसी आराधना अन्यत्र दुर्लभ है। इसलिए मैं कहता हूं कि [तुम इस समन्वित आराधना के पथ को प्राप्त कर] शक्ति का गोपन मत करो।"११
४२. कोई पुरुष पहले उठता है और जीवन-पर्यन्त उत्थित ही रहता है-कभी नहीं
गिरता। कोई पुरुष पहले उठता है और बाद में गिर जाता है। कोई पुरुष न पहले उठता है और न बाद में गिरता है ।
४३. जो भिक्षु [लोक] का त्याग कर, फिर उसका आश्रय लेता है, वह भी वैसा
[गृहवासी जैसा हो जाता है।
४४. इस (उत्थान-पतन के कारण) को जानकर भगवान् ने कहा-पंडित मूनि
आज्ञा में रुचि रखे, स्नेह न करे, रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में स्वाध्याय और ध्यान करे, सदा शील का अनुपालन करे, [लोक में सारभूत तत्त्व को] सुनकर काम और कलह से मुक्त बन जाए।"
४५. इस (कर्म-शरीर) के साथ युद्ध कर; दूसरों के साथ युद्ध करने से तुम्हें क्या
लाभ ?"
४६. युद्ध के योग्य [सामग्री] निश्चित ही दुर्लभ है।"
४७. भगवान् ने युद्ध के प्रसंग में परिज्ञा और विवेक का प्रतिपादन किया।
४८. [उत्थित होकर] च्युत होने वाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि [दुःखच ] में
फंस जाता है।
४९. इस (अर्हत के शासन) में यह बलपूर्वक कहा जाता है-रूप और हिंसा में
[आसक्त होने वाला उत्थित होकर भी च्युत हो जाता है ] ।
५०. केवल वही मुनि अपने पथ पर आरूढ़ रहता है, जो [विषय-लोक और हिंसा-]
लोक को भिन्न दृष्टि से देखता है-लोक-प्रवाह की दृष्टि से नहीं देखता।"
xदेखें, ३१८३॥
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