________________
२१४
आयारो
६. कामना का परित्याग । ७. कलह का परित्याग ।
सूत्र-४५-४६ १४. एक दिन कुछ मुनि भगवान् के पास आकर बोले-"भंते ! आपने कहा था-'तुम अपनी शक्ति को जितना सम्भव हो उतना ज्ञान, दर्शन की आराधना के साथ-साथ तप में लगाओ। वीर्य का गोपन मत करो, पराक्रम करो।' हमने आपके निर्देशानुसार पराक्रम किया, फिर भी हम कर्म-संस्कार को क्षीण नहीं कर पाये हैं। हम चाहते हैं, आप हमें कोई दूसरा मार्ग भी बताएं।"
उनकी बात सुनकर भगवान् ने पूछा- "क्या तुम और अधिक पराक्रम कर सकोगे?"
उन्होंने विनयपूर्वक कहा-"हम कठिन से कठिन काम कर सकते हैं । लौकिक भाषा में हम सिंह के साथ लड़ सकते हैं और साधना की भाषा में शरीर तक को छोड़ सकते हैं।"
भगवान् ने कहा--"कर्म-संस्कार को क्षीण करने का महत्त्वपूर्ण उपाय हैयुद्ध । वह कर्म-शरीर वृत्तियों के माध्यम से तुम्हें सता रहा है, उसके साथ लड़ोउसकी किसी भी इच्छा को स्वीकार मत करो। यह स्थूल शरीर विषय-सुख का इच्छुक है । इसके साथ लड़ो-इन्द्रियों को इन्द्रिय में और मन को मन में विलीन कर दो।"
भगवान् ने आत्म-युद्ध का उपदेश देकर युद्ध के योग्य सामग्री का उपदेश दिया। भगवान् ने कहा-"जब तक बुढ़ापा न सताए, रोग न बढ़े, इन्द्रियां हीन न हों, तब तक युद्ध करो। यही उसका उपयुक्त अवसर है। शरीरगत वासना से लड़कर ही कर्म-संस्कारों को क्षीण किया जा सकता है। वास्तव में यही (कर्मसंस्कार) है-उपयुक्त प्रतियोद्धा।
सूत्र-४७ १५. आत्म-युद्ध कर्म को क्षीण करने का युद्ध है । इस युद्ध के दो मुख्य शस्त्र हैंपरिज्ञा और विवेक-जानो और असहयोग करो। विवेक कई प्रकार का होता है। परिग्रह-विवेक-धन, धान्य, परिवार आदि से पृथक्त्व की अनुभूति । शरीरविवेक-शरीर से भिन्नता की अनुभूति । भाव-विवेक-निर्ममत्व की अनुभूति । कर्म-विवेक-कर्म से पृथक्त्व की अनुभूति ।
१६. प्रस्तुत सूत्र में 'रूप' शब्द इन्द्रिय-विषयों का तथा शरीर का और 'क्षण' शब्द
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org