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लोकसार
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मैं तुम्हें अनुभूत बात कह रहा हूं। तुम अपनी शक्ति को जितना सम्भव हो उतना ज्ञान, दर्शन की आराधना के साथ-साथ तप में लगाओ।
सूत्र-४२ १२. कोई साधक सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है और उसी वृत्ति से साधना करता है तथा कोई सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है बाद में शृगाल-वृत्ति वाला हो जाता है। ये दो विकल्प अभिनिष्क्रमण के हैं।
धन्य और शालिभद्र भगवान् महावीर के पास दीक्षित हुए। उन्होंने स्वाध्याय, ध्यान और तपस्या में साधु जीवन बिताया और अन्त में समाधि-मृत्यु का वरण किया। यह उत्थित जीवन का निदर्शन है।
पुण्डरीक और कुण्डरीक दो भाई थे। कुण्डरीक दीभित हुआ। वह रुग्ण हो गया । महाराज पुण्डरीक ने उसकी चिकित्सा करवाई। वह स्वस्थ हो गया और साथ-साथ शिथिल भी। उसने साधुत्व को छोड़ दिया। यह उत्थित होने के बाद पतित होने का निदर्शन है।
तीसरा विकल्प गृहवासी का है।
सूत्र-४४ १३. प्रस्तुत सूत्र में साधु-जीवन की स्थिरता के सात सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है
१. आज्ञाप्रियता-आज्ञा शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-ज्ञान और उपदेश । २. स्नेह-मुक्ति । ३. पूर्व रात्र और अपर रात्र में यतना- रात्रि के प्रथम दो प्रहर पूर्व रात्र
और शेष दो प्रहर अपर रात्र कहलाते हैं । रात्रि-जागरण की दो परम्परा रही है-१. केवल तीसरे प्रहर में सोना, शेष तीन प्रहर में जागना। २. प्रथम और अन्तिम प्रहर में जागना और बीच के दो प्रहरों में सोना। रात्रि के दो या तीन प्रहरों में जागृत रह कर ध्यान और स्वाध्याय करना, अप्रमत्त रहना 'यतना' है। ४. शील-संप्रेक्षा-महाव्रतों का अनुशीलन, इन्द्रियों का संयम, मन, वाणी
और काया की स्थिरता, क्रोध, मान, माया और लोभ का निग्रह-यह शील है। इसका सतत दर्शन 'शील-संप्रेक्षा' है। ५. लोकसार का श्रवण-लोक में सारभूत तत्त्व-ज्ञान, दर्शन और
चारित्र का श्रवण।
१. णायाधम्मकहाओ, १।१६।
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