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लोकसार
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सत्य का अनुशीलन ११६. सब प्रकार से, सम्पूर्ण रूप से निरीक्षण कर सत्य का ही अनुशीलन करना
चाहिए।
११७. इस सत्य के अनुशीलन में आत्म-रमण की परिज्ञा कर, [आत्म-लीन और
जितेन्द्रिय होकर परिव्रजन करे। [संयम साधना द्वारा] कृतार्थ, वीर मुनि सदा आगम-निर्दिष्ट अर्थ' के अनुसार पराक्रम करे। ऐसा मैं कहता हूं।
११८. ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में स्रोत हैं । ये स्रोत कहे गए हैं। इनके
द्वारा मनुष्य आसक्त होता है-यह तुम देखो।
११९. [राग और द्वेष के] आवर्त का निरीक्षण कर ज्ञानी पुरुष उससे विरत हो
जाए।
१२० इन्द्रिय-विषय का परित्याग कर निष्क्रमण करने वाला महान् साधक अकर्म
(ध्यानस्थ) होकर जानता, देखता है।
१२१. [सत्य को देखने वाला आगति और गति (संसार-भ्रमण) की परिज्ञा कर
[विषयों की] आकांक्षा नहीं करता।
१२२. सूत्र और अर्थ में रत मुनि जन्म और मृत्यु के वृत्त-मार्ग (चक्राकार मार्ग)
का अतिक्रमण कर देता है।
x इसका वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है-सब प्रकार से, सम्पूर्ण रूप से
निरीक्षण कर साम्य का ही अनुशीलन करना चाहिए। + देखें, दसवेआलिय चूलिया, २।११ । + देखें, २११२५ का टिप्पण। + तुलना, २१३८ ।
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