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________________ लोकसार २०५ सत्य का अनुशीलन ११६. सब प्रकार से, सम्पूर्ण रूप से निरीक्षण कर सत्य का ही अनुशीलन करना चाहिए। ११७. इस सत्य के अनुशीलन में आत्म-रमण की परिज्ञा कर, [आत्म-लीन और जितेन्द्रिय होकर परिव्रजन करे। [संयम साधना द्वारा] कृतार्थ, वीर मुनि सदा आगम-निर्दिष्ट अर्थ' के अनुसार पराक्रम करे। ऐसा मैं कहता हूं। ११८. ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में स्रोत हैं । ये स्रोत कहे गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य आसक्त होता है-यह तुम देखो। ११९. [राग और द्वेष के] आवर्त का निरीक्षण कर ज्ञानी पुरुष उससे विरत हो जाए। १२० इन्द्रिय-विषय का परित्याग कर निष्क्रमण करने वाला महान् साधक अकर्म (ध्यानस्थ) होकर जानता, देखता है। १२१. [सत्य को देखने वाला आगति और गति (संसार-भ्रमण) की परिज्ञा कर [विषयों की] आकांक्षा नहीं करता। १२२. सूत्र और अर्थ में रत मुनि जन्म और मृत्यु के वृत्त-मार्ग (चक्राकार मार्ग) का अतिक्रमण कर देता है। x इसका वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है-सब प्रकार से, सम्पूर्ण रूप से निरीक्षण कर साम्य का ही अनुशीलन करना चाहिए। + देखें, दसवेआलिय चूलिया, २।११ । + देखें, २११२५ का टिप्पण। + तुलना, २१३८ । ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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