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टिप्पण
सूत्र-१ १. हिंसा के प्रयोजन तीन हैं-काम, अर्थ और धर्म । अपने, दूसरे या दोनों के प्रयोजन की पूर्ति के लिए की जाने वाली प्रवृत्ति अर्थवान् और जिसका कोई प्रयोजन न हो, वह अनर्थ कहलाती है-आतपरउभयहेत्तुं अट्ठा, सेसं अणट्ठाए (चूणि)।
२. कामना का अतिक्रमण करना सहज नहीं होता। इसलिए उसे 'गुरु' कहा गया है।
सूत्र-३ ३. मनुष्य सुख का अर्थी होकर काम-भोग का सेवन करता है। उससे अनेक शारीरिक और मानसिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं; फलतः वह सुख से दूर चला जाता है। प्रयोजन में जो होता है, वह परिणाम में नहीं होता।
४. संशय दर्शन का मूल है-प्रस्तुत सूत्र में यही तथ्य प्रतिपादित है। जिसके मन में संशय नहीं होता-जिज्ञासा नहीं होती, वह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम के मन में जब-जब संशय होता, तब वे भगवान् के पास जाकर उसका समाधन लेते।
'संशयात्मा विनश्यति'-संशयालु नष्ट होता है। इस पद में संशय का अर्थ सन्देह है। प्रस्तुत आगम के ५।९३ सूत्र में कहा है कि सन्देहशील मनुष्य समाधि को प्राप्त नहीं होता। ___ 'न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति'-संशय का सहारा लिए बिना मनुष्य कल्याण को नहीं देखता । इस अर्धश्लोक में प्रस्तुत सूत्र की प्रतिध्वनि है। ___ संसार का अर्थ है जन्म-मरण की परम्परा । जब तक उसके प्रति मन में संशय नहीं होता, वह सुखद है या दुःखद, ऐसा विकल्प उत्पन्न नहीं होता, तब तक वह चलता रहेगा। उसके प्रति संशय उत्पन्न होना ही उसकी जड़ में प्रहार करना है।
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