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लोकसार
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७३. [प्रमत्त (षष्ठ गुणस्थान वाले) मुनि के] अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए
जो कर्म-बन्ध होता है, उसका [विलय] प्रायश्चित्त के द्वारा होता है।
७४. [प्रमाद से किए हुए कर्म-बन्ध का] विलय अप्रमाद से होता है-सूत्र
कार ने ऐसा कहा है।
ब्रह्मचर्य ७५. विपुलदर्शी, विपुलज्ञानी, उपशांत, सम्यक् प्रवृत्त, [शान, दर्शन एवं
चारित्र-] सहित, सतत इन्द्रिय-जयी मुनि [ब्रह्मचर्य से विचलित करने के लिए उद्यत स्त्री-जन को देखकर मन में सोचता है
७६. यह जन मेरा क्या करेगा ?
७७. यद्यपि इस जगत् में जो स्त्रियां हैं, वे परम सुख देने वाली हैं, [किन्तु मैं
सहज सुखी हूँ, वे मुझे क्या सुख देंगी?] ५
७८. वासना से पीडित मुनि के लिए भगवान् ने यह उपदेश दिया
७९. वह निर्बल भोजन करे।
८०. ऊनोदरिका करे-कम खाए।"
८१. कर्व स्थान (घुटनों को ऊंचा और सिर को नीचा) कर कायोत्सर्ग
करे।
८२. ग्रामानुग्राम विहार करे।
८३. आहार का परित्याग (अनशन) करे।
८४. स्त्रियों के प्रति दौड़ने वाले मन का त्याग करे।"
x प्रायश्चित के दस प्रकार हैं। उक्त कोटि के कर्म की शुद्धि तप मा छेद जैसे प्रायश्चित्त
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