________________
लोकसार
१८१
१७. कुछ साधु अकेले रहकर साधना करते हैं। किन्तु कोई भी एकचारी साधु
जो अति क्रोधी, अति मानी, अति मायी, अति लोभी, अति आसक्त, नट की भांति बहुत रूप बदलने वाला, नाना प्रकार की शठता और संकल्प करने वाला [हिंसा आदि] आस्रवों में आसक्त और कर्म से आच्छन्न होता है, 'हम [धर्म करने के लिए] उद्यत हुए हैं, ऐसी घोषणा करने वाला कोई देख न ले', [इस आशंका से छिपकर अनाचरण करता है], वह अज्ञान और प्रमाद' के दोष से सतत मूढ़ बना हुआ [एकचारी होकर भी] धर्म को नहीं जानता।
१८. हे मानव ! जो लोग [विषय की पीडा से] पीडित हैं, प्रवृत्ति-कुशल हैं,
आस्रवों से विरत नहीं हैं और जो अविद्या से मोक्ष होना बतलाते हैं, वे संसार के भंवर-जाल में चक्कर लगाते रहते हैं।
-ऐसा मैं कहता हूं।
द्वितीय उद्देशक
अप्रमाद का मार्ग १६. इस जगत् में जितने मनुष्य अहिंसाजीवी हैं, वे इन (विषयों) में [अनासक्त
होने के कारण] ही अहिंसाजीवी हैं।
२०. इस अर्हत्-शासन में स्थित मुनि शरीर को संयत कर, 'यह कर्म-विवर'
(आश्रव) है, ऐसा देखकर उसे (कर्म-विवर को) क्षीण करता हुआ [प्रमाद न करे] ।
२१. 'इस औदारिक शरीर का यह वर्तमान क्षण है', इस प्रकार जो वर्तमान ___ क्षण का] अन्वेषण करता है [वह सदा अप्रमत्त होता है] ।'
२२. यह [अप्रमाद का] मार्ग तीर्थंकरों ने बताया है।
x चूर्णिकार ने पलिय' का 'प्रलीन' रूप माना है-'प्रलीनमुच्यते कर्म भृशं लीनं यदात्मनि ।'
वृत्ति कार ने 'पलित' रूप माना है। + अज्ञान दर्शन-मोहनीय कर्म का सूचक है और प्रमाद चारित्र मोहनीय कर्म का ।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org