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लोक-विजय
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फलित होता है-मनुष्य को मूढ़ बनाता है ।
सूत्र-७० . १२. जो क्रूर कर्म करता है, वह मूढ़ होता है और जो मूढ़ होता है, वह विपर्यास को प्राप्त होता है-यह कार्य-कारण की शृंखला है।
सूत्र--१०० १३. भोग और हिंसा एक ही रेखा के दो बिन्दु हैं। ऐसा कोई भोगी नहीं है, जो भोग का सेवन करता है और उसके लिए हिंसा नहीं करता। जहां हिंसा है, वहां भोग हो भी सकता है और नहीं भी होता। जहां भोग है, वहां हिंसा निश्चित है। अत: भोग के संदर्भ में अहिंसा का उपदेश बहुत मूल्यवान् है।
सूत्र-१०२ १४. जीवन-यापन के लिए भोजन आवश्यक है। मुनि गृहस्थ के घर से उसे प्राप्त करता है। वह (भोजन) भोग भी बन सकता है और त्याग भी बन सकता है। राग-द्वेष-मुक्त भाव से लिया हुआ और किया हुआ भोजन भी त्याग होता है। राग-द्वेष-युक्त भाव से लिया हुआ और किया हुआ भोजन भोग बन जाता है। त्याग या संयम की साधना करने वाला मुनि भोजन लेने के अवसर पर क्रोध, निंदा आदि आवेशपूर्ण व्यवहार न करे। मन को शांत और संतुलित रखे।
सूत्र-११३ १५. भोजन की मात्रा का निश्चित माप नहीं किया जा सकता। उसका सम्बन्ध भूख से है । न सबकी भूख समान होती है और न सबकी भोजन की मात्रा । फिर भी आनुपातिक दृष्टि से भगवान् ने भोजन की मात्रा बत्तीस कौर बतलाई और उससे कुछ कम खाने का निर्देश दिया।
सूत्र-११७ १६. मुनि आहार, वस्त्र आदि प्राप्त करे, उस समय भी वह अपने-आप को परिग्रह से बचाए। इस प्राप्त होने वाले आहार और वस्त्र को 'मैं स्वयं उपभोग करूंगा, दूसरों को नहीं दूंगा' यह चिन्तन भी परिग्रह है। 'यह मुझे जो प्राप्त हुआ है, वह मेरा नहीं है, आचार्य का है, संघ का है'-इस चिन्तन के द्वारा मुनि अपने-आप को परिग्रह से बचाए । अनेषणीय आहार, वस्त्र आदि न लेना, एषणीय आहार, वस्त्र आदि को प्राप्त कर उनमें आसक्त न होना, उनका संग्रह न करना-यह सब परिग्रह से बचने के लिए है।
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