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सम्यक्त्व
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२६. [यदि आप कहें, 'हमें दुःख प्रिय है, तो यह उत्तर प्रत्यक्ष-विरुद्ध होगा और
यदि आप कहें, 'हमें दुःख प्रिय नहीं है, तो] आपका सिद्धान्त सम्यग् है । हम आप से कहना चाहते हैं कि जैसे आप को दु:ख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए दुःख अप्रिय, अशान्तिजनक और महाभयंकर है।
-ऐसा मैं कहता हूं।
तृतीय उद्देशक
सम्यग्-तप २७. [अहिंसा से] विमुख इस [दर्शन-] जगत् की तू उपेक्षा कर। जो ऐसा
करता है, वह समूचे [दर्शन-] जगत् में विज्ञ होता है। तू अनुचिन्तन कर देख-हिंसा को छोड़ने वाले मनुष्य ही कर्म को क्षीण करते हैं।
२८. देह के प्रति अनासक्त+ मनुष्य ही धर्म को जान पाते हैं और धर्म को जानने
वाले ही ऋजु होते हैं।
२९. दु:ख हिंसा से उत्पन्न है-यह जानकर [मनुष्य हिंसा का परित्याग करे] ।
समत्वदर्शी प्रवचनकारों ने ऐसा कहा है।
३०. वे सब कुशल प्रवचनकार दुःख की परिज्ञा (विवेक) का प्रतिपादन करते हैं । ३१. इसलिए [मुमुक्षु] पुरुष कर्म को सब प्रकार से जानकर उसका परित्याग
करे।
३२. आज्ञाप्रिय पण्डित एक आत्मा की ही संप्रेक्षा करता हुआ अनासक्त हो जाए।
वह कर्म-शरीर को प्रकम्पित करे और [कषाय-] आत्मा को कृश करे, जीर्ण
करे। + मृतार्चा-अर्चा शब्द के दो अर्थ हैं-देह और क्रोध । जिसका शरीर साज-सज्जा के प्रति
मृत जैसा होता है या जिसकी कषाय मृत होती है, वे मृताचं कहलाते हैं। ४ आज्ञा शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-ज्ञान और उपदेश । + यहां 'शरीर' शब्द कर्म-शरीर का सूचक है। प्रस्तुत सूत्र के 'धुणे कम्मसरीरगं' (श५६) इस पद से इसकी पुष्टि होती है। यहां 'अप्पाणं' पद का प्रयोग कषाय-आत्मा के अर्थ में हुआ है।
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