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शीतोष्णीय
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४१. सत्य में रत रहने वाला मेधावी सर्व पाप कर्म का शोषण कर डालता है।
पुरुष को अनेकचित्तता ४२. यह पुरुष अनेक चित्त वाला है । वह चलनी को भरना चाहता है । ५
४३. [तृष्णाकुल मनुष्य ] दूसरों के वध, परिताप और परिग्रह तथा जनपद के
वध, परिताप और परिग्रह के लिए [प्रवृत्ति करता है ।
संयमाचरण
४४. कुछ व्यक्ति वध आदि का आसेवन कर अंत में संयम-साधना में लग जाते हैं।
इसलिए वे फिर उस (काम-भोग एवं हिंसा आदि) का आसेवन नहीं करते।
४५. ज्ञानी ! तू देख ! [विषय] निस्सार है। तू जान ! जन्म और मृत्यु
[निश्चित] हैं। अतः हे अहिंसक ! तू अनन्य (संयम या मोक्षमार्ग) का आचरण कर।
४६. वह (अहिंसक) जीवों की हिंसा न करे, न कराए और न उसका अनुमोदन
करे।
४७. तू [ कामभोग के ] आनन्द से उदासीन बन । स्त्रियों में अनुरक्त मत बन ।
४८. परम को देखने वाला पुरुष पाप कर्म का आदर नहीं करता।
४९. वीर पुरुष कषाय के आदिभूत क्रोध और मान को नष्ट करे । लोभ को महान्
नरक के रूप में देखे। [लोभ नरक है ; ] इसलिए वायु की भांति अप्रतिबद्ध विहार करने वाला वीर [जीव-] वध से विरत होकर स्रोतों (कामनाओं) को छिन्न कर डाले।
५०. इंद्रियजयी वीर परिग्रह और कामनाओं को तत्काल छोड़कर विचरण करे।
इस मनुष्य-जन्म में ही उन्मज्जन (संसार-सिंधु से निस्तार) हो सकता है। उसे प्राप्त कर मुनि प्राणियों के प्राणों का समारम्भ न करे।
-ऐसा मैं कहता हूं।
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