SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शीतोष्णीय १३३ ४१. सत्य में रत रहने वाला मेधावी सर्व पाप कर्म का शोषण कर डालता है। पुरुष को अनेकचित्तता ४२. यह पुरुष अनेक चित्त वाला है । वह चलनी को भरना चाहता है । ५ ४३. [तृष्णाकुल मनुष्य ] दूसरों के वध, परिताप और परिग्रह तथा जनपद के वध, परिताप और परिग्रह के लिए [प्रवृत्ति करता है । संयमाचरण ४४. कुछ व्यक्ति वध आदि का आसेवन कर अंत में संयम-साधना में लग जाते हैं। इसलिए वे फिर उस (काम-भोग एवं हिंसा आदि) का आसेवन नहीं करते। ४५. ज्ञानी ! तू देख ! [विषय] निस्सार है। तू जान ! जन्म और मृत्यु [निश्चित] हैं। अतः हे अहिंसक ! तू अनन्य (संयम या मोक्षमार्ग) का आचरण कर। ४६. वह (अहिंसक) जीवों की हिंसा न करे, न कराए और न उसका अनुमोदन करे। ४७. तू [ कामभोग के ] आनन्द से उदासीन बन । स्त्रियों में अनुरक्त मत बन । ४८. परम को देखने वाला पुरुष पाप कर्म का आदर नहीं करता। ४९. वीर पुरुष कषाय के आदिभूत क्रोध और मान को नष्ट करे । लोभ को महान् नरक के रूप में देखे। [लोभ नरक है ; ] इसलिए वायु की भांति अप्रतिबद्ध विहार करने वाला वीर [जीव-] वध से विरत होकर स्रोतों (कामनाओं) को छिन्न कर डाले। ५०. इंद्रियजयी वीर परिग्रह और कामनाओं को तत्काल छोड़कर विचरण करे। इस मनुष्य-जन्म में ही उन्मज्जन (संसार-सिंधु से निस्तार) हो सकता है। उसे प्राप्त कर मुनि प्राणियों के प्राणों का समारम्भ न करे। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy