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सम्यक्त्व
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प्रथम उद्देशक
सम्यग्वाद : अहिंसा-सूत्र १. मैं कहता हूं
जो अर्हत् भगवान् अतीत में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे-वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं और ऐसा प्ररूपण करते हैंकिसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए; उन पर शासन नहीं करना चाहिए। उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए; उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए; उनका प्राण-वियोजन नहीं करना चाहिए।
२. यह [अहिंसा-] धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने जीव-]
लोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया ।
३. [अर्हतों ने अहिंसा-धर्म का उन सबके लिए प्रतिपादन किया है-]
जो उसकी आराधना के लिए उठे हैं या नहीं उठे हैं; जो उपस्थित हैं या उपस्थित नहीं हैं; जो दण्ड से उपरत हैं या अनुपरत हैं; जो परिग्रही हैं या परिग्रही नहीं हैं; जो संयोग में रत हैं या संयोग में रत नहीं हैं।
४. यह (अहिंसा-धर्म) तत्त्व है । यह तथ्य है । यह इस (अर्हत्-प्रवचन) में सम्यम्
निरूपित हैं।
५. पुरुष उस [अहिंसा-महावत] को स्वीकार कर उसमें छलना न करे और
न उसे छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर [आजीवन उसका पालन करे।
६. वह विषयों के प्रति विरक्त रहे।
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