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________________ सम्यक्त्व १५३ प्रथम उद्देशक सम्यग्वाद : अहिंसा-सूत्र १. मैं कहता हूं जो अर्हत् भगवान् अतीत में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे-वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं और ऐसा प्ररूपण करते हैंकिसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए; उन पर शासन नहीं करना चाहिए। उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए; उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए; उनका प्राण-वियोजन नहीं करना चाहिए। २. यह [अहिंसा-] धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने जीव-] लोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया । ३. [अर्हतों ने अहिंसा-धर्म का उन सबके लिए प्रतिपादन किया है-] जो उसकी आराधना के लिए उठे हैं या नहीं उठे हैं; जो उपस्थित हैं या उपस्थित नहीं हैं; जो दण्ड से उपरत हैं या अनुपरत हैं; जो परिग्रही हैं या परिग्रही नहीं हैं; जो संयोग में रत हैं या संयोग में रत नहीं हैं। ४. यह (अहिंसा-धर्म) तत्त्व है । यह तथ्य है । यह इस (अर्हत्-प्रवचन) में सम्यम् निरूपित हैं। ५. पुरुष उस [अहिंसा-महावत] को स्वीकार कर उसमें छलना न करे और न उसे छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर [आजीवन उसका पालन करे। ६. वह विषयों के प्रति विरक्त रहे। ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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